भारत की आजादी के 75 साल गुजर गए मगर महिलाओं की हालत पर नजर भारतीय डालें तो आज भी देश की 90 फीसदी महिलाएं अपने जीवन से जुड़े निर्णय खुद नहीं ले सकती हैं. उन के सारे फैसले परिवार और समाज में मौजूद मर्द ही लेते हैं. औरतों में इतनी हिम्मत अब तक नहीं आई है कि वे परिवार व समाज द्वारा जबरन थोपी जा रही रवायतों के खिलाफ एक शब्द भी बोल सकें. आजादी का 75 साला जश्न मना रही देश की महिलाएं आज भी गुलामी की जंजीरों में जकड़ी हुई हैं.
संविधान से जो हक औरत को मिले हैं, अधिकांश औरतों को उन हकों की जानकारी नहीं है, जिन्हें जानकारी है वे चाह कर भी उन हकों को पा नहीं पाईं और जो थोड़ी सी शिक्षित औरतें हिम्मत कर के अपने अधिकार पाने की जद्दोजहेद करती हैं उन की पूरी उम्र अदालतों के चक्कर काटने में गुजर जाती है. उन पर लांछन लगते हैं, उन का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है, अनेक स्तरों पर उन का शोषण होता है, उन की सारी जमापूंजी पुलिस और वकील खा जाते हैं, सालोंसाल अदालतों में वे केस लड़ती हैं और आखिर में मिलता है अकेलापन और उपेक्षित बुढ़ापा. यह सिर्फ और सिर्फ इसलिए क्योंकि सालोंसाल धर्म की ठोकपीट में महिलाओं को यही सिखायासमझाया गया कि वे दासी और भोग की वस्तु मात्र हैं.
संपत्ति की झूठी आस
मनु स्मृति के अध्याय 9, श्लोक 416 में मनु बेहद स्पष्ट कहते हैं कि स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं है. स्त्री की संपत्ति का मालिक उस का पति पिता या पुत्र है.
इन दिनों महिलाओं की संपत्ति को ले कर दर्जनों तरह के कानून अस्तित्व में हैं लेकिन अपवादों को छोड़ दें तो हालात जस के तस हैं. महिलाएं, खासतौर से नए जमाने की युवतियां, कमा तो उत्साह और पूरी मेहनत से रही हैं लेकिन उन की कमाई जायदाद में नहीं बदल पा रही है और जो थोड़ीबहुत बदल भी रही है तो उस का मालिक और उपभोक्ता कोई पुरुष ही है. यह तो बहुत छोटी सी हुई महिलाओं की स्वअर्जित संपत्ति की बात, फसाद पिता और पति को विरासत में मिली संपत्ति को ले कर ज्यादा हो रहे हैं.
Bu hikaye Sarita dergisinin August II 2022 sayısından alınmıştır.
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