सिध सिरी जोग लिखी कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
Sarita|September First 2024
धीरेधीरे मैं भी मौजूदा एडवांस दुनिया का हिस्सा बन गई और उस पुरानी दुनिया से इतनी दूर पहुंच गई कि प्रांशु को लिखवाते समय कितने ही वाक्य बारबार लिखनेमिटाने पड़े पर फिर भी वैसा...
नीलू शेखावत
सिध सिरी जोग लिखी कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

कल प्रांशु ने पूछा-चिट्ठी क्या होती है? क्यों लिखी जाती है? संयोग से मैं ने कुछ खाली पोस्टकार्ड्स और लिफाफे संभाल कर रखे थे वरना अब तो पोस्टऑफिस का भी अस्तित्व नहीं, पोस्टकार्ड कहां से मिलते? मैंने उन्हें पोस्टकार्ड्स तो दिखा दिए पर इस सब के लिए लिखना और पढ़ना भी तो जरूरी है.

बच्चे हंस रहे थे कि जो काम मैसेज या कौल से हो सकता है वह पत्र से क्यों? पर अब उन्हें आनंद आ रहा है. पत्र की भाषा मैं भी भूल रही हूं पर यत्नपूर्वक याद किया तो बचपन की स्मृतियां तैर गईं. मेरे सारे भाईबहन टैलीफोन पीढ़ी हैं, उन्होंने न कभी किसी को पत्र लिखा, न ही पढ़ा. मैं छुटपन में ननिहाल में रही जहां से मैं ने अपनी मां और मौसियों को खूब पत्र लिखे.

उस समय पत्र लिखना भी एक कला थी और यकीन मानिए, मैं ने इस में बहुत कम उम्र में निपुणता प्राप्त कर ली थी. हालांकि इस कार्य हेतु नियत एक कुशल व्यक्तित्व विद्यमान था जिन से हमारी कोई बराबरी नहीं थी. घर की दीवान-ए-इंशा हमारी मुरधर मौसी थी जिस के पास आसमानी रंग वाले खूब सारे अंतर्देशीय पत्र और सुंदरसुंदर पैन होते थे. किंतु मुझे उन्हें छूनेछेड़ने की इजाजत नहीं थी.

मेरे पिताजी जब भी असम से आते, मौसी के लिए चाइना पैन (एक महंगा पैन जिसे हम इसी नाम से जानते थे) लाते. यह पैन कमाल का होता था, एक बार दवात में मुंह डालता तो बकरी की तरह पूरा पेट भर कर ही बाहर निकलता. लिखते समय मजाल है कि स्याही का एक छींटा भी कहीं लग जाए? निप (निब) इतनी बारीक कि डोरे जैसे अक्षर छपते. जब उंगलियों के बीच फंसता तो शब्ददरशब्द ऐसा सरपट फिसलता कि हाथ को पता ही न चलता कि कब तीनचार पेज भर गए.

Bu hikaye Sarita dergisinin September First 2024 sayısından alınmıştır.

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अच्छा लगता है सिंगल रहना
Sarita

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Sarita

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पोटैशियम और मैग्नीशियम शरीर के लिए कितने जरूरी
Sarita

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क्या शादी छिपाई जा सकती है
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Sarita

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जून से नवंबर सिर्फ 5 माह में महाराष्ट्र व झारखंड की विधानसभाओं और दूसरे उपचुनावों में चुनावी समीकरण कैसे बदल गया, लोकसभा चुनावों में मुंह लटकाने वाली पार्टी के चेहरे पर मुसकान आ गई लेकिन कुछ काटे चुभे भी.

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1947 के बाद कानूनों से बदलाव की हवा
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क्या कानून हमेशा समाज सुधार का रास्ता दिखाते हैं या कभीकभी सत्ता के इरादों का मुखौटा बन जाते हैं? 2014 से 2024 के बीच बने कानूनों की तह में झांकें तो भारतीय लोकतंत्र की तसवीर कुछ अलग ही नजर आती है.

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पतिपत्नी के रिश्ते में बदसूरत मोड़ क्यों
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