शदिल्ली आई तो एक खुलेखुले बागबगीचे वाले घर को छोड़ कर ससुराल के थ्री बीएचके फ्लैट में रहना उस के लिए बड़ा कष्टमय रहा. थर्ड फ्लोर पर बने फ्लैट में रहते हुए उसे त्रिशंकु जैसी फीलिंग होती थी. ऐसा घर जहां न छत अपनी न जमीन अपनी. वहां सूरज की रोशनी भी अंदर नहीं आती थी.
शर्मिष्ठा बचपन से जवानी तक अपने जिस घर में रहती आई थी वह एक बंगला था. सामने बगीचा, पीछे किचन गार्डन. हर कमरे में खिड़कियां खुली साफ हवा. घर के बीच आंगन और आंगन में पड़ती सुबह के सूरज की पहली किरण. ऐसे में ससुराल में आ कर जब उसे फ्लैट में रहना पड़ा तो यहां उस का दम घुटने लगा. चारों तरफ से बंद फ्लैट, जिस में खुलेपन के नाम पर बस एक बालकनी थी जहां खड़े हो कर वह लंबीलंबी सांसें खींचा करती थी.
अब तो शर्मिष्ठा को इसी घर में रहना था क्योंकि दिल्ली जैसी जगह में बंगले की कल्पना तो नहीं की जा सकती, इसलिए उस ने बालकनी को ही कुछ ऐसा लुक देने की सोची जिस से प्रकृति से नजदीकी का कुछ एहसास जगे. शर्मिष्ठा ने छोटेछोटे गमलों में कुछ पौधे लगाए.
घर की हर टूटीफूटी चीज को उस ने पेंट कर के उस में छोटे सीजनल फ्लौवर वाले पौधे लगा कर बालकनी की रेलिंग पर जगहजगह टांग दिए. कहीं पुराने जूते में तो कहीं चाय की केतली में पौधों की बेलें लटकने लगीं, जो बेहद आकर्षक लगती थीं. बीचबीच में उस ने रंगीन बल्ब वाली लाइट और छोटीछोटी घंटियां लगा दीं, जो हवा के झोंकें से हिलतीडुलती कर्णप्रिय संगीत उत्पन्न करतीं.
बालकनी के एक कोने में उस ने तुलसी, सदाबहार और मीठे नीम के कुछ बड़े पौधे बड़े गमलों में लगाए, जिस से वह हिस्सा ज्यादा हराभरा दिखने लगा. धीरेधीरे उस की बालकनी का लुक चेंज होने लगा. एक दिन शर्मिष्ठा बाजार से नकली घास वाला छोटा कारपेट खरीद लाई. उसे बालकनी में बिछा कर उस ने उस पर बांस की 2 छोटी कुरसियां और एक छोटी मेज सजा दी.
Bu hikaye Grihshobha - Hindi dergisinin December First 2022 sayısından alınmıştır.
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