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उद्योग का चक्का जाम!
लॉकडाउन ने हर तरफ लॉक-लॉक की स्थिति ला दी है. जब महानगरों व नगरों से प्रवासी मजदूर वापस अपने घर लौट गये हैं, ऐसे में लॉकडाउन खुल भी जाए यह अंदाजा लगा पाना कि उद्योगों के चक्के सरपट कब तक दौड़ने लगेंगे, मुश्किल है.
कृषि को खाद-पानी की दरकार
भारतीय कृषि अपनी पंरपरागत खेती पद्धतियों के कारण वैसी विकसित नहीं हो पायी, जितनी इसके लिए संभावना थी, रही-सही कसर अलसायी सी कृषि नीति ने पूरी कर दी और भारतीय कृषि व कृषक पहले से ही आईसीयू में थे. ऐसे में कोविड19 ने इस संकट को गंभीरता के पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है.
ये भी हैं कोरोना योद्धा
लगभग 40 दिनों के लॉकडाउन में अगर कुछ व्यवस्थागत खामियों को छोड़ दे तो देश में अभी तक किसी की भूख से मौत नहीं हुई है और यह संभव हो पाया है तो सिर्फ देश के उन 14 करोड़ किसान परिवारों की वजह से जिन्हें अबतक कोई बड़ी वित्तीय मदद नहीं मिल पायी है, जिसे कि उन्हें तुरंत दरकार है.
लॉकडाउन से जॉबडाउन
देश में पहले से ही बेरोजगारी दर 7-8 प्रतिशत थी, ऐसे में लॉकडाउन से उपजी नई परिस्थितियों ने नौकरियों पर संकट ला दिया है. कुल मिला कर लॉकडाउन के बाद 19.5 करोड़ लोगों के सामने रोजगार का गंभीर सकंट खड़ा होगा.
संकट में ड्रैगन
दुनिया में जैसे-जैसे कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ रही है चीन का संकट बढ़ता जा रहा है. कल तक जो लोग इसे एक प्राकृतिक आपदा के रूप में देख रहे थे, उनके मन में भी अनेक प्रश्न पैदा होने लगे हैं. उन्हें यह आशंका होने लगी है कि कोरोना वायरस के इस संक्रमण में चीन की भूमिका हो सकती है.
सरकारी उपाय नाकाफी
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का प्रधानमंत्री गरीब कल्याण पैकेज (पीएमजीकेपी) सिर्फ उस सीमा तक स्वागत योग्य है, जहां तक यह कोविड-19 के सामाजिक खतरे के कारण गरीब परिवारों के सामने आने वाली कठिनाइयों को दूर करेगा. इसमें टैक्स से जुड़ी राहतें भी हैं.
अब लोकल के लिए वोकल होगा देश!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा आगाज किये गये 'आत्मनिर्भर भारत मिशन' को स्वीदेशी का नया अवतार माना जा रहा है. साथ ही भारत- चीन सीमा पर लद्दाख में भारतीय-चीनी सेना के स्टैंडऑफ होने के बाद चीनी समानों के बहिष्कार की एक लहर भी चली है.
थोथे पैकेज की पैकेजिंग
कोविड19 के दौर में केंद्र सरकार के राहत पैकेज से मन को थोड़े समय के लिए राहत तो मिली लेकिन जब पैकेज के रूप में 20.97 लाख करोड़ रुपये को गिना जाने लगा तो यह थोथा पैकेज दिखने लगा. इसमें कुछ घोषणाएं पुरानी थीं तो कुछ तथाकथित सुधारवादी फैसले थे. -
टूटता भरोसा
आदमी अपने जीवन काल में किसी न किसी जानवर को पानी पिलाता ही है या किसी न किसी रूप में उसे खाना देता ही है. ऐसे में मनुष्य और इन जानवरों के बीच कम से कम एक भरोसे का रिश्ता तो रहा ही है. बेशक कोई व्यक्ति हाथी को अपने घर में नहीं पालता, लेकिन जब आदमी हाथी को छूता है तो दोनों के बीच एक भरोसा तो होता ही है कि दोनों में से कोई भी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाएगा.
चूना चाटने की चीनी आतुरता
दही और चूना दोनों ही देखने में एक जैसे होते हैं, लेकिन दोनों की तासीर में जमीन-आसमान का अंतर होता है. जिसे दही समझकर चाट जाने के लिए ड्रैगन की जीभ लपलपा रही है वह ऐसा चूना है जो उसकी अंतडियां जला सकता है. इस सत्य का आभास होते ही उसके कसबल ढीले होने शुरु हो गये. उसे भलीभांति पता चला गया है कि यह नया हिंदुस्तान उसकी गीदड़भभकी से डरने वाला नहीं बल्कि वह जो भाषा समझता है उसी भाषा में समझाने का माद्दा रस्वता है. नतीजा, कल तक युद्ध को उतार दिख रही ड्रैगन की सेना दो किलोमीटर पीछे हट गई हैं. क्या भारत को मिले चौतरफा समर्थन ने ड्रैगन को डरा दिया ? या फिर धूर्त चीन की यह कोई नई चाल है? इन्हीं सवालों के ईर्द गिर्द यह स्टोरी.
कोरोना संकट की घड़ी में विपक्षी दल कहां रहे?
कोरोना महामारी के महासंकट की इस घड़ी में भारत के लोकतंत्र के महत्वपूर्ण आधार माने जाने वाले विपक्षी राजनीतिक दलों की भूमिका ने बहुत निराश किया.
सूबे में ही मिलेगा प्रवासी कामगारों को रोजगार
कोविड 19 महामारी की वजह से देश के अलग-अलग हिस्सों से उत्तर प्रदेश में सरकारी आंकड़े के मुताबिक करीब 30 लाख प्रवासी कामगार वापस अपने गृहराज्य लौट आएं है.
महामारी के दौर में फेक न्यूज लोगों की जान के लिए खतरा
कॉर्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा था. मीडिया नए युग का अफीम है. खासकर सोशल यानी ऑनलाइन मीडिया. देखिए न जिस समाज को शिक्षा, स्वास्थ्य और दवा की जरूरत होती है. उसे पहले मोबाइल और इंटरनेट में उलझाया जाता है, ताकि वह मूलभूत जरूरतों की मांग न कर सके. आज देश में न तो मीडिया साक्षरता है, न ही डिजिटल प्लेटफॉर्म के बारे में अधिसंख्य समाज को जानकारी, लेकिन उन्हें ट्विटर और 280 अक्षर के ट्वीट के माध्यम से एक ऐसे माहौल में जीने को विवश किया जा रहा. जहां समाज का एक बड़ा तबका सिर्फ और सिर्फ फेक न्यूज का शिकार हो रहा है.
मोदी सरकार 2.0 फैसले और उपलब्धियां
आज मोदी सरकार को सत्ता में दोबारा वापस आए 1 साल हो गया.1 सालों में हमने 'क्या पाया क्या खोया' इसी पर मैं अपने विचार आप लोगों से शेयर कर रहा हूँ.अगर बात की जाए तो पिछला 1 साल राजनीतिक दृष्टि से काफी ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण साल रहा है.
पानी में घुलती चीनी साख
कोरोना वायरस ने चीन के प्रति दुनिया की सोच को बदल दिया है और इसका असर भू-राजनीतिक से लेकर आर्थिक- सामाजिक व सामरिक क्षेत्र में आसानी से देखा जा रहा है. इस बदलाव के निशाने पर केवल चीन है और बीते महीनों में चीन की धौंसपट्टी ने उसकी सारव को मटियामेट कर दिया है.
चुनौतियों से जूझते यूपी-बिहार
कोविड-19 की वजह से जारी लॉकडाउन के बीच भारी संख्या में बिहार-उत्तर प्रदेश में प्रवासी मजदूर लौटे हैं. इन मजदूरों के गृहराज्य लौटने के बाद उन्हें किस प्रकार क्वारंटिन किया जा रहा है या अन्य व्यवस्थाएं किस प्रकार संचालित की जा रही है, इसकी पड़ताल करती 8 अप्रैल, 2020 को इंडियास्पेंड ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की.
नीतिगत संजीवनी की दरकार
वैश्विक स्तर पर देखे तो कोविड 19 संकट से निपटने के लिए भारत द्वारा 25 मार्च से लॉकडाउन के रुप में उठाये गए कदम और उसके बाद से भारत में कोविड-19 से संक्रमित लोगों तथा मरने वालों की सीमित संरव्या की भले ही प्रशंसा की जाती रही हो, लेकिन अब स्थितियां पहले से ज्यादा विकराल चुनौतियां बढ़ रही है. तो सवाल उठता है कि क्या इस संकट से लड़ने के लिए अच्छा मौका गंवा दिया गया है? हो रही है.
कोरोना संकट: राजनीति फ्रॉम होम
कोरोना संकट की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान जहां तमाम गतिविधियां लगभग रुक सी गई हैं, लोग वर्क फ्राम होम कर रहे हैं, ऐसे में राजनीतिक दल भी अपनी गतिविधियों को चलाने के लिए डिजिटल तकनीक का सहारा ले रहे हैं. लेकिन विपक्षी दलों को सरकार का विरोध करने के लिए इस समय 'हथियारों' की कमी पड़ गई है.
मजूदरों का पलायन क्यों ?
भारत में लॉकडाउन शुरु होने के हफ्तों बाद प्रवासी मजदूर घर वापस लौटने लगे. सरकार की तमाम घोषणाओं को राहत-सुविधाएं देने के बावजूद यह सिलसिला नहीं थम रहा है, आरिवर क्यों?
निष्कंटक है फडणवीस की राह
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के लिए हो रहे महाराष्ट्र में एमएलसी के चुनाव में पंकजा मुंडे का टिकट कटने से देवेंद्र फडणवीस की राह निष्कंटक हो गई है.
कितने निवेश आकर्षित कर पाएगा भारत ?
कोरोना महामारी के बाद वैश्विक स्तर पर बने माहौल के बीच बहुत सी कंपनियां चीन छोडकर दूसरे देशों में जाने पर भी विचार कर रही हैं. क्या भारत चीन से निकलने वाले निवेश को अपने यहां आकर्षित कर पाएगा?
दोराहे पर देश
अभी यह अंदाजा लगाना जल्दबाजी होगी कि जब हम कोविड-19 की सुरंग से निकले तो दुनिया कैसी दिरवेगी. फिलहाल, हम इस सुरंग के बाहर रोशनी नहीं देख पा रहे हैं. हमें यह भी नहीं मालूम है कि कोई सटीक टीका भी मिल पाएगा, जिससे हम कोविड के थोड़े-बहुत डर के साथ जीना और काम करना शुरु कर पाएंगे, जैसे हम अब इन्फ्लूएंजा के साथ कर पा रहे हैं. या कुछ साल तक भरोसेमंद टीका ईजाद नहीं हो पाता है और हमें सामाजिक मेलजोल में दूरी रखकर और लगातार टेस्ट के जरिए वायरस के संक्रमण से बचे रहने के लिए आश्वस्त होना पड़ेगा और अपनी जिंदगी और आजीविका चलाते रहना होगा.
धन बरसे... आर्थिक पैकेज की पैकेजिंग
आखिरकार केंद्र सरकार ने देश के कुल जीडीपी के 10 फीसदी के बराबर 20 लाख करोड़ रुपये की विशेष आर्थिक पैकेज की घोषणा कर दी. प्रथम दृष्टया तो यह अचंभित करने वाला एक बड़ा कदम लगता है लेकिन गौर से देखें तो इसमें पुरानी घोषणाओं के रिपैकेजिंग का कॉकटेल भी मिला हुआ है. यह तात्कालीक राहत पैकेज के बजाय दूरगामी सस्टेनेबल पैकज है. हालांकि इसकी भी बड़ी जरुरत थी. एक तरफ इससे उम्मीद बंधती है कि देश प्रधानमंत्री के 'आत्मनिर्भर अभियान' के बल पर आत्मनिर्भर बन जाएगा. तो सवाल यह भी उठता है कि इसका क्रियान्वयन कितना होगा.. क्या बैंक उदार रवैया अपनाएंगे, जिससे कि सरकार की सोच हकीकत में बदल सके.
पलायन मजदूरों का या सरकारों का?
हमारे देश में संविधान को पवित्र पुस्तक का दर्जा दिया जाता है. यह वही संविधान है जिसकी प्रस्तावना शुरू होती है, 'हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, विचार अभिव्यक्ति...' को अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.
बेसहारा मध्यवर्ग
केवल लोन की किस्तों में छह महीने की मॉनोटेरियम की सुविधा पा कर मध्यवर्ग इस कोरोना संकट से कैसे उबरेगा, इसकी चिंता सरकारों को नहीं है. अबतक ऐसी कोई पहल नहीं दिखी कि नौकरी और आय का साधन खो रहे इस वर्ग की मुश्किलें आसान हो.
नीतीश कुमार का ख्याली पुलाव
एक कहावत बड़ी लोकप्रिय है- देखा-देखी पुण्य और देखा-देखी पाप, यह कहावत आज की तारीख में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर फिट बैठती है.
चल, चला चल...
वे चले जा रहे हैं....पैदल, साइकिल से, रिक्शा से, ट्रक से... जो भी साधन मिला उससे...नहीं मिला तो पैदल... इनकी यात्रा अविश्वास की उपज है. सत्ता का इकबाल इस कदर कुंद हुआ है कि इन्हें अपने जांगर पर तो भरोसा है लेकिन सत्तासीनों पर नहीं, चाहे वह राज्य सत्ता हो या केंद्रीय सत्ता.
बनना ही होगा आत्मनिर्भर भारत
वर्तमान दौर ने एक गणराज्य के तौर पर हमें यह सबक दे दिया है कि हमें अंतरराष्ट्रीय शक्तियों पर निर्भरता को न केवल कम करना होगा बल्कि स्वयं को आत्मनिर्भर बनाना होगा. इसके अतिरिक्त कोई विकल्प भी नहीं है...
सोरेन की बढ़ रही चुनौतियां
परंपरा के अनुसार ही भारी जीत हासिल करने के बाद हेमंत सोरेन ने झारखंड की सवा तीन करोड़ जनता का आभार प्रकट करने के बाद उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी सरकार बदले की भावना से काम नहीं करेगी. ऐसा कोई फैसला नहीं करेगी, जो झारखंड की जनता के लिए तकलीफदेह हो. इससे झारखंड के आवाम में भरोसा जगा और उम्मीदें बलवान हुई है लेकिन क्या सोरेन के लिए वाकई राह इतना आसान है...
टकराव के अक्स
टकराव की मौजूदा गंभीरता इससे भी समझी जा सकती है कि फिलहाल छह विधानसभाओं केरल, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ में सीएए को असवैधानिक करार देने वाले प्रस्ताव पारित हो चुके हैं. इस कतार में झारखंड की विधानसभा में भी प्रस्ताव आ सकता है क्योंकि दूसरी विपक्षी पार्टियों के साथ कांग्रेस नेतृत्व ने सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ मुहिम छेड़ दी है.