पंजाब की वुलन फैक्ट्री में काम करने वाले सुखवंत को नशा करने की लत पड़ गई. वह चरस, अफीम, गांजा जो भी वक्त पर मिल जाता, उस का नशा कर के धुत हो जाता था. घर पर पत्नी हरमीत कौर और बच्चे भूखे बैठे हैं, इस की वह कभी परवाह नहीं करता. हरमीत कौर उस से कुछ कहती तो वह रूई की तरह उसे धुन देता. तब बेचारी रोतीबिलखती भूखे बच्चों को सीने से लगा कर सो जाती थी.
यह रोजरोज की कहानी बन गई तो हरमीत को मजबूरी में मुक्तसर शहर में रहते हुए दूसरों के घरों में झाड़ूपोंछा करने का काम करना पड़ा. वह खुद तो भूखी रह सकती थी, लेकिन बच्चों को भूख से रोते नहीं देख सकती थी.
सुखवंत पूरी तरह नशे का आदी हो चुका था, हरमीत कौर को उस नशेड़ी का भी बोझ ढोना पड़ रहा था. वह अपने मांबाप के यहां भी अभावों में पली थी, पति के साथ भी वह अभावों में जी रही थी. सुखवंत उस का पति है, यह समाज की नजर में था, लेकिन हरमीत कौर ने उसे पति मानना छोड़ दिया था.
फिर एक दिन सुखवंत का रोड पर ऐक्सीडेंट हो गया. हरमीत कौर की समझ में नहीं आया कि ऐसे नाकारा और नशेड़ी पति की मौत पर खुशियां मनाए या छाती पीट कर रोए. जैसेतैसे उस ने सुखवंत का अंतिम संस्कार किया और अपने बच्चों की परवरिश में लगा गई. सुखवंत खुद तो जान से गया, लेकिन हरमीत कौर की जान को 4 बच्चों का झमेला छोड़ गया. इन में एक लड़का था और 3 लड़कियां थीं.
हरमीत कौर को झाड़ूपोंछा में जो मिलता, उन से बच्चों का पेट भरती थी. उस के लिए भविष्य में कुछ जमा करने की कोई राह नहीं थी. रोज कुआं खोदना और पानी पीने जैसी बात थी. एक दिन उसे तेज बुखार चढ़ गया था. उस में इतनी भी हिम्मत नहीं बची थी कि बच्चों के लिए कुछ बचेखुचे आटे की रोटियां बना कर खिला दे. वह बिस्तर में पड़ी राह रही थी. तभी उस के दरवाजे पर दस्तक हुई.
"कौन है?" मरी सी आवाज में हरमीत कौर ने पूछा.
"मैं बिंदर कौर हूं. घर में कोई बुखारखुखार में तो नहीं है ?" बाहर से कहा गया.
हरमीत कौर को लगा, उस के लिए कोई फरिश्ता आ गया है. वह उठ कर बैठने की कोशिश करती हुई बोली, "जी, मेरी तबियत खराब है, आप अंदर आ कर मुझे देख लीजिए."
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