दरअसल, 2024 के आम चुनाव के नतीजों और खासकर लोकसभा में अपने दम पर बहुमत हासिल करने में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नाकामी को कट्टरपंथी हिंदुत्व की वैचारिक पराजय के रूप में देखा गया. राजनैतिक पर्यवेक्षकों के एक तबके ने तो यहां तक आस बांध ली कि राष्ट्रीय स्तर पर एक पार्टी का दबदबा कम होने से मुसलमान विरोधी आक्रामक सांप्रदायिक लफ्फाजी शांत हो जाएगी. मगर चुनाव-बाद के राजनैतिक घटनाक्रमों से पता चलता है कि ज्यादा कुछ नहीं बदला.
हिंदू-मुस्लिम दोफाड़ ताकतवर राजनैतिक संदर्भ बिंदु के रूप में कायम है. कानूनी तौर पर विवादित कुछेक मुस्लिम इबादतगाहों और खासकर वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह को लेकर चल रही बहसें और तेज हो गई हैं. अजमेर की मशहूर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह सहित ऐतिहासिक मस्जिदों के धार्मिक चरित्र का मूल्यांकन करने के लिए विभिन्न अदालतों में नई याचिकाएं दायर की गई हैं. यहां तक कि संभल की शाही जामा मस्जिद के मामले में भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआइ) के हस्तक्षेप के नतीजतन हिंसा हुई जिसमें चार लोग मारे गए. सरकार ने विवादास्पद वक्फ विधेयक भी संसद में पेश कर दिया, जो देश में मुस्लिम बंदोबस्ती की देखरेख में गंभीर बदलाव की कोशिश करता है. इन सांप्रदायिक नजर आते मुद्दों के फैलाव से पता चलता है कि 2024 के चुनाव के बाद सार्वजनिक विमर्श के स्वरूप में कोई खास बदलाव नहीं आया है.
बीते छह महीनों की घटनाओं को समझने के दो तरीके हैं. आसान व्याख्या यह है कि आक्रामक हिंदुत्व ने अपनी लफ्फाजी से दूसरों पर असर डालने की धार नहीं खोई है और यही वजह है कि हाशिए के उग्र धड़ों ने इसे राजनीति के सबसे भरोसेमंद तरीके के रूप में अपनाने का फैसला लिया. यह आसान व्याख्या पूरी तरह गलत भी नहीं है. अलबत्ता इस पकी-पकाई प्रतिक्रिया से आगे जाने की जरूरत है. राजनीति की शैली के रूप में समकालीन हिंदुत्व और उसकी किस्म किस्म की अभिव्यक्तियों का सावधानी से विश्लेषण किया जाना चाहिए. इस मायने में हिंदुत्व के स्वघोषित धड़ों और संघ परिवार के भीतर सत्ता के ढांचे के सामने मौजूद चुनौतियां काफी अहम हो जाती हैं.
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