भारत देश आजादी के 75 साल पूरे कर चुका है. इस साल का आजादी दिवस हर साल की भा तरह खास इसलिए नहीं कि हम 76वें स्वतंत्रता दिवस को राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मना रहे हैं बल्कि यह दिन अपने इतिहास को खंगालने और वर्तमान को टटोलने का मौका होता है. यह दिन भविष्य की रूपरेखा भी तय करता है. यह गाड़ी में लगे उस साइड मिरर की तरह होता है जो पीछे के दृश्य तो दिखाता ही है साथ ही आगे की दुर्घटनाओं से आगाह भी कराता है.
यह गुलामी के उस काल की याद दिलाता है जिस के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी गई और कई देशवासियों की शहादत हुई. यह एक रिमाइंडर है जो आकलन करता है कि हम अपने कदम किस ओर बढ़ा रहे हैं, कहीं हम रुक तो नहीं गए या उलटी दिशा में तो नहीं जा रहे.
अगर पीछे मुड़ कर देखें तो आजादी का आंदोलन अपनेआप में बलिदानों की गाथा गाता है. कई जननायकों ने अपनी जवानी कालकोठरी में गुजार दी, कई युवाओं ने आजादी के लिए अपनी पढ़ाई व कैरियर दांव पर लगा दिया, कई हंसतेहंसते फांसी के तख्त को चूम गए, कई लाठीगोलियों से शहीद हो गए. यह इसलिए कि इन का एक न्यूनतम एजेंडा यह था कि आजादी के बाद देशवासी अपने जीवन को अपनी शर्तों पर जी सकें. वे अपनी सरकार, अपने नेताओं को चुन सकें जो जनता को अशिक्षा, बदहाली व गरीबी से छुटकारा दिलाएं और हर स्तर पर मजबूत देश का निर्माण कर सकें. ऐसा देश जहां आर्थिक और सामाजिक उन्नति हो, जहां न कोई रंग और जन के आधार पर राज करने वाला हो न कोई गुलाम, न ऊंचा न नीचा.
आजाद भारत में लोगों का यह सपना केवल राजनीतिक ऊंचनीच से ही संबंधित नहीं था बल्कि लोग आर्थिक तथा सामाजिक बराबरी भी चाहते थे. 1947 में पार्टीशन का कड़वा घूंट पिए लोग धर्म के जंजालों में पड़ना नहीं चाहते थे, वे काफीकुछ खो चुके थे और अब शांति से देश को आगे बढ़ते देखना चाहते थे.
खैर, आजादी के 75 सालों बाद यह देशवासियों के लिए गनीमत रहा कि इतने साल देश का लोकतंत्र वोटतंत्र से ही सही पर चलता जरूर रहा. लोगों ने अपने प्रतिनिधियों को चुन कर संसद व विधानसभाओं में भेजा. उन्होंने अपने अनुसार सहीगलत जो भी फैसले लिए या कानून बनाए, उन फैसलों ने देश को ठोकपीटधकेल कर आगे बढ़ाया.
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