'रक्षावधान बंधन आ रहा है. सामान भाई से खरीदें, देश जलाने वाले भाईजान से नहीं,' सोशल मीडिया पर यह अपील अब लगातार लेकिन रुकरुक कर चलेगी. अक्तूबर में कहा जाएगा, 'दीवाली आ रही है, सामान देश को रोशन करने वाले भाइयों से खरीदें, देश जलाने वाले भाइजानों से नहीं.' फिर कुछ दिनों बाद ऐसा ही कोई नया नारा बाजार में ला दिया जाएगा जिस से नफरत का माहौल आबाद रहे और यह भी साबित हो जाए कि धर्म के मूलभूत सिद्धांत सत्य, अहिंसा, शांति, समानता, सद्भाव वगैरह नहीं, बल्कि एकदूसरे से धर्म, जाति, लिंग और गोत्र तक के नाम पर घृणा करना है जिस से दुकानें फलतीफूलती रहें.
रही बात हरियाणा के नूंह और उस के आसपास हुए सांप्रदायिक दंगों, आगजनी, मौतों और तोड़फोड़ सहित मुसलमानों के आर्थिक व सामजिक बहिष्कार की तो ये बातें कतई नई नहीं हैं बल्कि सदियों से की जा रही हैं, जिन के पीछे एक वर्ग विशेष के स्वार्थ होते हैं. हैरानी तो तब होती है जब इस तरह की बातें न की जाती हों और तब जरूर देश देश जैसा नहीं लगता, कहीं कुछ खालीपन सा महसूस होता है.
मणिपुर के बाद इस खालीपन को 31 जुलाई से 3 अगस्त तक की हिंसा ने भरा. तरीका वही पुराना था. हिंदुओं की बृजमंडल जलाभिषेक यात्रा निकल रही थी कि अचानक माहौल बिगड़ गया. मुख्य सड़क से पहले पत्थरबाजी हुई, दोनों पक्षों की तरफ से भड़काऊ नारे लगे, देखतेदेखते ही दुकानें धड़ाधड़ बंद होने लगीं. लोग भागने लगे. इस मची अफरातफरी में डेढ़ सौ के लगभग वाहनों को आग के हवाले दंगाइयों ने कर दिया. पुलिस वाले, जो गिनेचुने थे, हमेशा की तरह तमाशा देखते रहे. इसी दौरान फायरिंग शुरू हो गई जिस में एक मुसलिम धर्मगुरु सहित होमगार्ड के 2 जवान मारे गए.
चंद घंटों बाद ही राज्य सरकार की मांग पर सुरक्षा बल की टुकड़ियां नूंह पहुंच गईं जिस से स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण वाली हो गई. धार्मिक हिंसा की इस आग की लपटें आसपास के इलाकों फरीदाबाद, पलवल और गुरुग्राम में भी दिखीं. इन शहरों में भी धारा 144 लगाते इंटरनैट सेवाएं बंद कर दी गईं. आरोपप्रत्यारोप लगाए जाने लगे जिन के शोर में सत्य दब कर रह गया.
हिंसा के गुनाहगार
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