दिखावा कल्चर ने त्योहारों की असली खुशियां छीन लीं
Sarita|October Second 2024
पहले दीवाली पर घर में बनी मिठाइयां और पकवान जब दूसरों के घरों में जाते थे और उन पर तारीफें आती थीं तो मम्मी के चेहरे पर जो खुशी व रौनक होती थी, उस के आगे दीयों की रोशनी भी फीकी लगती थी, पर अब सबकुछ रेडीमेड है.
नसीम अंसारी कोचर
दिखावा कल्चर ने त्योहारों की असली खुशियां छीन लीं

दो दशक पहले की दीवाली याद करिए. जो लोग आज जिंदगी के चौथे दशक में चल रहे हैं। वे जब 18-20 साल की उम्र में थे, तब की दीवाली और अब की दीवाली में उन्हें एक बहुत बड़ा फर्क नजर आएगा. 20 साल पहले, कई महीने पहले से दीवाली का इंतजार होने लगता था. अब की दीवाली आई तो यह कर लेंगे, वह कर लेंगे. कितने काम होते थे जो दीवाली के लिए ही छोड़े जाते थे. किचन का कोई बरतन खराब हो गया और नया लेना है तो कहते थे : “अरे, दो महीने रुक जाओ, अब की धनतेरस पर ले लेंगे."

मम्मी के साथ घर के सभी छोटेबड़े दीवाली आने से हफ्तों पहले ही पूरे घर की साफसफाई में जुट जाते थे. बच्चा पार्टी को और्डर मिलता था कि अपने अपने कमरे की सफाई करो, अलमारियों से किताबें और कपड़े निकाल कर साफ कर के नया अखबार बिछाओ और किताबें व कपड़े करीने से सजाओ, अरे दीवाली आने वाली है. पिताजी चौराहे से दो मजदूर पकड़ लाते थे और पूरे घर की पुताई करवाई जाती थी. यानी पूरा घर दीवाली के स्वागत की तैयारियों में जुट जाता था.

सब की दीवाली खूब बढ़िया मने, इस की पूरी जिम्मेदारी मम्मी और उन के किचन पर होती थी. कई दिनों पहले से दीवाली की मिठाइयां और नमकीन बनने लगती थीं. पापा लइया-चना, गुड़, बताशे, चीनी के खिलौने, दीये, रुई, तेल- घी, मैदा, चीनी, खोया, मावे आदि दीवाली से कई दिनों पहले ही ला कर रख देते थे.

20-25 साल पहले तक निम्न और मध्यवर्गीय परिवारों में बाजार से रंगीन डब्बों में रंगबिरंगी मिठाइयां ला कर बांटने का रिवाज नहीं था. ये नखरे तो बस उच्चवर्ग में ही देखे जाते थे. मगर आज निम्न तबके को भी यह रोग लग गया है. महंगी मिठाई न सही तो पतीसे का डब्बा ही सही. मध्य वर्ग के लोग अपनी कामवाली, सफाईवाली, धोबी, ड्राइवर, कूड़ा उठाने वाले, माली वगैरह को सौ पचास रुपए के साथ पतीसे के डब्बे ही देने लगे हैं. उन के घरों में पतीसे के डब्बों का ढेर लग जाता है.

पहले ऐसा नहीं था. प्रसाद में जो मिठाई भोग चढ़ाई जाती थी, महल्ले में बांटने के बाद जो बचती थी वह घर में काम करने वाले लोगों में डिस्ट्रिब्यूट हो जाती थी. वे बड़े चाव से उस को खाते थे और अपने बच्चों के लिए बांध कर ले जाते थे.

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