आप किसी भी शहर की किसी भी बरती में चले जाएं, आप को किसी पीपल के पेड़ के नीचे मूर्तियों के ढेर मिल जाएंगे. ये वे मूर्तियां हैं जिन्हें बड़े चाव से खरीदा गया, कुछ दिन पूजा गया और फिर उन को कूड़े में फेंकने की इच्छा नहीं हुई तो पेड़ के नीचे डाल कर इति कर दी गई. हमारी कानून व्यवस्था के साथ भी यही हुआ है कि एक पुरानी कानून की देवी की मूर्ति को सड़क पर फेंक दिया गया है और बाजेगाजे के साथ नई मूर्ति स्थापित हो गई है.
मूर्तिकरण वैसे तो सदियों से चला आ रहा है और देश के हर कोने में बहुत पुरानी, पुरानी और नई मूर्तियां दिख जाएंगी पर हाल के सालों में मूर्तियों का विशेष योगदान रहा है : समस्याएं हल करने में नहीं, कुछ पा जाने में सफल होने में नहीं, अपनी इच्छा पूरी हो जाने पर नहीं बल्कि विवाद खड़े करने पर.
कांग्रेस नेता वल्लभभाई पटेल की लगभग 600 फुट ऊंची 3,000 करोड़ रुपए में सरकारी खर्च पर गुजरात में बनी. इंडिया गेट पर दूसरे कांग्रेसी नेता सुभाष चंद्र बोस की लगाई गई, अयोध्या में राम लला की सैकड़ों मूर्तियां लगाई गईं जिस को ले कर सैकड़ों ने जानें भी दी होंगी.
इन के बीच कानून की देवी की एक नई मूर्ति मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट में लगवा ली और पुरानी आंखों पर पट्टी बांधी हुई, तलवार ली कानून की प्रतीक मूर्ति को कहीं कोने में खिसका दिया. यह कोई क्रांतिकारी कदम नहीं.
जैसे बहुजन समाज पार्टी की मायावती, नरेंद्र मोदी, दलितों, मराठों, ईसाइयों ने मूर्तियों को प्रचार के लिए इस्तेमाल किया वैसे ही अब न्यायपालिका ने भी कर डाला.
क्या यह नई मूर्ति न्याय लाएगी ? इस के लिए एक कहानी बहुत मौजूं है.
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