यह सम्मेलन भारत के लिए वरदान साबित हुआ है क्योंकि इसने सरकार को देश की राष्ट्रीय जैव विविधता रणनीति और कार्य योजना (एनबीएस-एपी) को फिर से देखने और अद्यतन करने के लिए प्रेरित किया है। पहले के जैव विविधता प्रबंधन व्यवस्था की शुरुआत वर्ष 1999 में हुई थी और वर्ष 2008 और वर्ष 2014 में इसमें संशोधन किया गया था और मौजूदा समय की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इसमें पूरी तरह से सुधार की आवश्यकता थी।
कॉप-16 में पेश किए गए इसके नए संस्करण का मकसद राष्ट्रीय और वैश्विक जैव विविधता संरक्षण एजेंडा दोनों को समायोजन करना है। इसके अलावा, इसका उद्देश्य जल संकट, खाद्य और आजीविका की सुरक्षा, मनुष्यों-वन्यजीवों का संपर्क, प्रदूषण और बीमारियों तथा आपदाओं के बढ़ते खतरे जैसे कुछ प्रमुख पारिस्थितिकी मुद्दों और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का समाधान करना है।
भारत, 17 मान्यता प्राप्त बड़ी विविधताओं वाले देशों में से एक है, जो एक साथ मिलकर वैश्विक जैव विविधता में 70 प्रतिशत का योगदान देते हैं। हालांकि इनके पास दुनिया की केवल 2.4 प्रतिशत भूमि है, लेकिन यह दुनिया के लगभग 8 प्रतिशत जैविक संसाधनों को बनाए रखने में सक्षम है जिसमें 45,500 पौधों की प्रजातियां, 91,000 जानवरों की प्रजातियां और अनगिनत अन्य जीव हैं। इनमें से कई के प्रमाण पेश नहीं किए गए हैं या अभी तक खोजे भी नहीं गए हैं।
देश के समग्र जैव-संसाधनों में से 33 प्रतिशत पौधे, 55 प्रतिशत उभयचर जीव, 45.8 प्रतिशत रेंगने वाले जीव और 12.6 प्रतिशत स्तनधारी भारत में क्षेत्र विशेष से जुड़े हैं और जो दुनिया में कहीं और नहीं पाए जाते हैं। दुनिया के 37 ‘वैश्विक महत्त्व की कृषि विरासत प्रणालियों’ में से भारत के तीन साइट को यह दर्जा हासिल है। इनमें केसर के लिए कश्मीर, पारंपरिक कृषि के लिए ओडिशा का कोरापुट और समुद्र तल से नीचे खेती के लिए केरल में कुट्टनाड शामिल है।
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