समाज - मनीषा पर विश्वास हो, राजनीतिक अनिवार्यताओं पर नहीं
Kendra Bharati - केन्द्र भारती|July 2023
मैं विवेकानन्द केन्द्र के साथ सन १६७७ में जुड़ी। तब तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध हुआ करता था।
निवेदिता भिड़े
समाज - मनीषा पर विश्वास हो, राजनीतिक अनिवार्यताओं पर नहीं

देवनागरी लिपि में जहाँ भी कुछ लिखा हो, चाहे रेल स्थानकों पर या फिर विवेकानन्दपुरम् में, द्रविड़ कलगम् और द्रविड़ मुन्नेट्र कलगम् के कार्यकर्ता आकर उसमें डामर लगा देते थे। केवल DK और DMK को ही क्यों दोष दें, अनेक जाने-माने लोग भी इस मुद्दे पर सम्भ्रमित थे। सन १६७८ में स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण मेरा निवास एक परिवार में था। वह एक धार्मिक परिवार था, नियमित रूप से पूजा, स्तोत्र पठन, उपवास आदि का पालन घर में होता था। एक बार कुछ चर्चा चल रही थी और अचानक उस घर की अच्छी पढ़ी-लिखी और उच्च पद पर काम माताजी ने कहा, करनेवाली “यदि वे अपने ऊपर हिन्दी ऐसे थोपेंगे तो हम भारत से अलग हो जाएंगे।" मेरे लिए वह बड़ा आघात था। मैं केवल २० वर्ष की थी, महान विचार और सपनों से प्रभावित थी, और किसी को पहली बार भारत को तोड़ने की भाषा करते हुए सुन रही थी। मुझे याद है, मैं उस रात सो नहीं पायी। मैं ठीक से अंग्रेजी बोल भी नहीं पाती थी और मेरी उनसे इस विषय पर बोलने की योग्यता भी नहीं थी। पर तब पहली बार मुझे लगा कि कर्मकाण्ड धार्मिकता अलग-अलग है। धर्म भारत का प्राण है। जो धर्म का पालन करता है, वह भारत को तोड़ने की भाषा नहीं करेगा। धर्म पालन में भारत-भक्ति अन्तर्निहित है। धर्म कर्मकाण्ड नहीं, आध्यात्मिकता है। इसलिए हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द, श्री अरविन्द, श्रीमन्त श्री शंकरदेव, आदि शंकराचार्य, श्री नारायण गुरु, गुरु गोविन्द सिंह एवं अनेक आध्यात्मिक महापुरुष देशभक्त थे और राष्ट्र-पुनरुत्थान के लिए उन्होंने काम किया।

बाद में वर्ष १६८१ में, जब विवेकानन्द केन्द्र के आसपास के लगभग ४० गावों के बच्चों के लिए पाठशाला शुरू हुई तो यह चर्चा हुई कि हिन्दी भाषा सिखाई जाए या नहीं। हम सब का मत था कि कम से कम वीं तक हिन्दी सिखाई जाए। पर हमें हिन्दी विरोधकों का सामना करने के लिए अपने आप को तैयार करना पड़ा। मुझे प्रधानाचार्य का दायित्व दिया गया था। एक दिन कुछ युवा पाठशाला आए। एक ने मुझसे पूछा, “प्रिन्सिपल कहाँ है?”

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