सरकारी नीतियों की वजह से मैन्युफैक्चरिंग या विनिर्माण धीमा होकर गैर-प्रतिस्पर्धी बन सकता है. वे अनैतिक प्रबंधन प्रथाओं को बढ़ावा दे सकती हैं. यह 1950 के बाद तैयार की गई औद्योगिक नीतियों के नतीजों से जाहिर है. 1991 में लाइसेंस और नियंत्रण प्रणाली के उन्मूलन के साथ ही प्रतिस्पर्धा का माहौल तैयार करने से कुछ सकारात्मक बदलाव आए. अलबत्ता, सरकार ने 2014 के बाद ही ऐसी नीतियों को लागू किया, जिससे प्रतिस्पर्धी मैन्युफैक्चरिंग के ज्यादातर अड़ंगे दूर हो गए. व्यापार करने में आसानी (ईज आफ डूइंग बिजनेस) का प्रोग्राम, जीएसटी ( माल एवं सेवा कर) की शुरुआत, मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ का नेतृत्व करने के लिए निजी क्षेत्र पर भरोसा, राजकोषीय विवेक और कई अन्य सुधारों ने मैन्युफैक्चरिंग गतिविधि के ग्रोथ के लिए साजगार माहौल बनाया है. 2024 का बजट इस उद्देश्य को आगे बढ़ाता है.
एक ओर जहां सरकारी नीतियां यह तो तय कर सकती हैं कि मैन्युफैक्चरिंग फल-फूल सकती है या नहीं, वहीं वे वास्तव में मैन्युफैक्चरिंग की ग्रोथ तेज नहीं कर सकतीं. ग्रोथ की गति हमेशा कंपनियों के कामों से तय होगी. जिन कंपनियों का प्रबंधन पूरी तरह से अपनी कंपनियों के ग्रोथ के लिए प्रतिबद्ध है, वे उन कंपनियों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन करती हैं, जिनकी संपत्ति और संसाधनों को प्रमोटर की निजी संपत्ति माना जाता है. कंपनी में पैसे की हेराफेरी करने से अनुसंधान और विकास तथा विस्तार में निवेश करने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे ग्रोथ और प्रतिस्पर्धात्मकता काफी कमजोर हो जाती है. 1991 से पहले विकसित अवांछनीय प्रबंधन प्रथाओं की वजह से भारत में मैन्युफैक्चरिंग ग्रोथ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है. इससे काफी हद तक यह जाहिर होता है कि सकल घरेलू उत्पाद में मैन्युफैक्चरिंग का योगदान 16 फीसद से कम क्यों है.
Diese Geschichte stammt aus der August 28, 2024-Ausgabe von India Today Hindi.
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