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कई बार मुद्दे हैरान करते हैं, जरूरी नहीं कि वे नए हों, लेकिन वे ऐसे छा जाते हैं कि अपने में सबको समाहित कर लेते हैं। बिहार के व्यापक जातिवार सर्वेक्षण ने लगता है ऐसी ही फिजा तैयार कर दी है, जिसमें राजनैतिक प्रतिद्वंद्विताएं ही नहीं, राजनैतिक प्रतिबद्धताएं भी विचारों के केंद्र में आ गई हैं। बेशक, यह मुद्दा इंडिया ब्लॉक की कांग्रेस समेत ज्यादातर केंद्रीय सत्ता की विपक्षी पार्टियों को उत्साहित कर रहा है जबकि सत्तासीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उनकी सहयोगी पार्टियां कुछ हद तक दुविधा में दिख रही हैं। प्रधानमंत्री तो लगातार जनसभाओं में इस मुद्दे को “समाज में बंटवारा” पैदा करने वाला तक बता रहे हैं, लेकिन बिहार भाजपा के सुशील कुमार मोदी जैसे नेता कहते हैं, “इसका फैसला तो हमारी गठबंधन सरकार के दौरान ही हुआ था और हमारी पार्टी के वित्त मंत्री ने इसके लिए धन मुहैया कराया था।”इसी मामले में बिहार के मुख्यमंत्री तथा जनता दल-यूनाइटेड (जदयू) के नेता नीतीश कुमार विपक्ष के नए सूत्रधार की तरह उभरे हैं जिन्होंने पहली बार किसी मुद्दे से सत्तासीन गठजोड़ को बचाव की मुद्रा अपनाने पर मजबूर कर दिया है। वरना 2014 के बाद कम से कम दो लोकसभा चुनावों में यही दिखता रहा है कि भाजपा या नरेंद्र मोदी मुद्दे तय करते थे और विपक्ष प्रतिक्रिया देता रह जाता था। दरअसल, विपक्ष इस मुद्दे को सिर्फ ओबीसी जातियों के आरक्षण तक सीमित नहीं रख रहा है, बल्कि इसका विस्तार आर्थिक नीतियों को घेरने में भी कर रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 9 अक्टूबर को कांग्रेस कार्यसमिति (सीडब्लूसी) की बैठक के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “जाति जनगणना तो एक्सरे है। इसकी एमआरआइ तो आर्थिक सर्वेक्षण है, जो बताएगा कि किसके पास कितना धन, देश की संपत्ति का कितना हिस्सा है और अदाणी जैसे पूंजीपतियों के हाथ में कितना है। उसका बंटवारा करना होगा।” यानी विपक्ष इसमें मौजूदा सत्ता के खिलाफ सारे मुद्दे समेटने की संभावना देख रहा है।
Diese Geschichte stammt aus der October 30, 2023-Ausgabe von Outlook Hindi.
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