वर्ग विभाजन से बनी इस दुनिया को इतने आसान ढंग से समझाते हुए विद्यार्थी चटर्जी जब सत्यजीत रे की महानगर से शुरू करके नौ अध्यायों के अंत में अनामिका हक्सर की फिल्माई पुरानी दिल्ली (घोड़े को जलेबी खिलाने ले जा रिया हू) तक पहुंचते हैं, तो ऐसा लगता है कि कोई सबाल्टर्न इतिहासकार समाज में बीते दशकों के दौरान बदली मजदूरों की जीवन-स्थिति पर क्रोनोलॉजी रच रहा हो।
वरिष्ठ सिने आलोचक विद्यार्थी चटर्जी की पुस्तक 'डिस्पेयर ऐंड डिफायंस: द वर्कर इन इंडियन सिनेमा' अपने दस अध्यायों में फिल्मों का एक महासिनेमा रचती है, जिसके किरदारों में सत्यजीत रे से लेकर मृणाल सेन, एमएस सथ्यू, सईद अख्तर मिर्जा, बुद्धदेब दासगुप्ता, मंगेश जोशी, सुमित्रा भावे, भाऊराव करहड़े और अनामिका हक्सर शामिल हैं।
इन फिल्मकारों की अलग-अलग दौर में बनाई फिल्मों के मुख्य किरदार यानी मजदूर इस पुस्तक का केंद्रीय विषय हैं। मजदूर भी वह नहीं जिसकी छवि यह शब्द सुनते ही दिमाग में आती हो। कोई बूढ़ा पेंशनर है जो झुग्गियों में रहता है। कोई बस का खलासी है तो कोई गराज मिस्त्री। एक आदमी लेथ मशीन पर काम करता है तो दूसरा मध्यवर्ग का कामगार है जो शहर में पैदा हुए अलगाव से परेशान है। यहां महिला श्रमिक हैं, तो ग्रामीण मजदूर भी हैं। और इन सब की परिणति ऐसे गरीब मजदूरों में भी होती है जो व्यवस्था में मजदूरी या कहें काम करने की बुनियादी अवधारणा पर ही सवाल उठा देते हैं।
विद्यार्थी चटर्जी पुस्तक के परिचय में बताते हैं कि भारतीय सिनेमा में मजदूरों के चित्रण में उनकी दिलचस्पी कैसे जगी। जमशेदपुर जैसे औद्योगिक शहर में रहते हुए उनकी पढ़ाई जिस अंग्रेजी स्कूल में हुई, वहां पहली बार उनकी जिज्ञासा जगी कि लोयोला स्कूल के सभागार में उन्हें जो फिल्में दिखाई जाती हैं उनमें मजदूर क्यों नहीं होते जबकि चारों ओर धुआं उगलती चिमनियां और कारखाने मौजूद थे। वे लिखते हैं, "मैं हमेशा इस बात पर अचरज करता था कि रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाले शब्द जैसे पोंगा, पगार या नागा से मैं जुड़ क्यों नहीं पाता हूं। शनिवार को जो फिल्में दिखाई जाती हैं उनमें मजदूर वर्ग की कहानियां क्यों नहीं होती हैं?"
Diese Geschichte stammt aus der January 08, 2024-Ausgabe von Outlook Hindi.
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