महज छह साल पहले 7 जनवरी, 2018 को तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में चुनावी बॉन्ड की योजना को पेश करते हुए कहा था, "यह पूरी तरह साफ-सुथरे पैसे का मामला है और इससे राजनीतिक चंदे के तंत्र में पर्याप्त पारदर्शिता आ जाएगी।" आज जेटली तो नहीं हैं, लेकिन उनकी लाई योजना को इस देश की शीर्ष अदालत ने 'असंवैधानिक ठहराकर भारतीय जनता पार्टी सहित लगभग सभी राजनीतिक दलों को कठघरे में खड़ा कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट से दो बार झिड़की खाने के बाद इन बॉन्डों के इकलौते आधिकारिक जारीकर्ता भारतीय स्टेट बैंक ने आखिरकार जब चुनाव आयोग को मार्च के तीसरे सप्ताह में चुनावी बॉन्डों की खरीद और भुनाए जाने के आंकड़े अल्फान्यूमेरिक कोड सहित मुहैया करवाए, तो उसका मिलान करके लेनदेन का 'गोरखधंधा' पता करने में जानकारों को बमुश्किल घंटे भर का समय लगा। अब तक एक-एक करके इसकी परतें रोज खुल रही हैं। यहां बॉन्ड खरीदकर उससे राजनीतिक दलों को चंदा देने के बदले सरकारी ठेका लेने, भ्रष्टाचार के मुकदमे और जांच से बरी होने, दवाओं के लाइसेंस पास करवाने और यहां तक कि कंपनी के मालिकान को राज्यसभा की सांसदी दिलवाने तक का आरोप सामने आ चुका है। लगता है इस दलदल में सबके पैर धंसे हैं, सिवाय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के, जिसने न केवल इस योजना का विरोध किया था बल्कि इसके खिलाफ याचिका भी लगाई थी। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे सत्ता से बाहर बैठे छोटे दलों को तो खैर चंदा ही नहीं मिला।
इस चंदा योजना की प्रवर्तक और इसके परिणामस्वरूप सबसे बड़ी लाभार्थी या लेनदार भाजपा है, जिसे उन 41 कंपनियों से कुल 2,471 करोड़ रुपये का चंदा मिला जिनके खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और आयकर विभाग जैसी केंद्रीय एजेंसियां जांच कर रही थीं। इसमें से 1,698 करोड़ रुपया पार्टी को कंपनियों ने अपने यहां छापा पड़ने के बाद दिया। इनके अलावा 33 ऐसी कंपनियां हैं जिन्हें कथित रूप से भाजपा को चंदा देने के बाद 172 सरकारी ठेके मिले। चुनावी बॉन्ड के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने बताया कि ऐसी कंपनियों ने बॉन्ड खरीदने के बाद भाजपा को 1,751 करोड़ रुपया चंदा दिया और बदले में 3.7 लाख करोड़ रुपये के ठेके हासिल किए।
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