लोकसभा में 39 सीटों की ताकत रखने वाला तमिलनाडु रणनीतिक रूप से 'इंडिया' और एनडीए दोनों ही गठबंधनों के लिए अहम है। ब्राह्मणविरोधी राजनीति और मजबूत द्रविड़ वैचारिकी का इतिहास लिए यह सूबा अब भी भाजपा के लिए टेढ़ी खीर बना हुआ है, बावजूद इसके कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उससे संबद्ध संगठनों ने राज्य के सांस्कृतिक ताने-बाने में सेंध लगाने की पर्याप्त कोशिश की है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि राज्य के मतदाताओं ने कभी भी एकतरफा ढंग से द्रमुक या अन्नाद्रमुक को लगातार नहीं चुना, जो यहां की दो प्रमुख पार्टियां हैं। हर संसदीय चुनाव में राज्य का मतदाता इन दो दलों के नेतृत्व वाले गठबंधनों के बीच ही झूलता रहा है, उनके नाम चाहे जो भी हों। यहां वैचारिक सरोकारों से ज्यादा नेताओं का करिश्माई व्यक्तित्व और रणनीतिक गठजोड़ जीत और हार को तय करने में भूमिका निभाते हैं।
द्रमुक के नेतृत्व में डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव अलायंस ने 2004 में सभी 39 सीटें जीती थीं। इस गठबंधन में कांग्रेस सहित पीएमके, एमडीएमके और दो वामपंथी दल (भाकपा और माकपा) शामिल थे। इसके बावजूद अन्नाद्रमुक को 30 प्रतिशत वोट मिले थे जो द्रमुक के अपने 25 प्रतिशत वोट से ज्यादा थे। कांग्रेस के खाते में 14 प्रतिशत वोट आए थे।
पांच साल बाद 2009 में द्रमुक ने गठबंधन सहयोगियों को बदलते हुए 27 सीटों पर जीत हासिल की। उसके सहयोगियों में कांग्रेस, वीसी के और आइयूएमएल थे। पिछली बार के सहयोगी पीएमके, एमडीएमके और दोनों वामपंथी दल अबकी अन्नाद्रमुक की अगुआई वाले तीसरे मोर्चे के साथ चले गए थे। इसके बावजूद इस मोर्चे को महज 12 सीटें मिलीं।
2014 के चुनाव में कहानी पलट गई और अन्नाद्रमुक वाले गठबंधन ने सभी 39 सीटों पर द्रमुक का सूपड़ा साफ कर दिया। इस बार भी गठबंधनों और उनके घटकों में बड़ा बदलाव हुआ था। भाजपा के अलावा अन्नाद्रमुक के नेतृत्व वाले एनडीए में पीएमके और डीएमडीके शामिल रहे। द्रमुक के सहयोगियों में आइयूएमएल और वीसीके के अलावा एकाध क्षेत्रीय दल और थे। इस गठबंधन का नाम डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव अलायंस था।
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