सपना
Naye Pallav|Naye Pallav 15
रेलगाड़ी की घर-घर की आवाज एवं उसकी सीटी से नींद खुल गई। पता किया तो किसी ने कहा - पटना आने ही वाला है।
रतिकान्त पाठक 'बाबा'
सपना

मुझे भी पटना ही गाड़ी छोड़कर दूसरी गाड़ी पकड़नी थी। अतः उठकर बैठ गया और पटना जंक्शन आने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ ही क्षण बाद पटना जंक्शन पर घरघराती हुई गाड़ी लग गई। कुली... कुली ! हल्ला करते हुए मैं भी अपना सामान बांधने लगा और कुली के आने के बाद सारा सामान उसके माथे पर रखकर बरौनी जाने वाली गाड़ी में चढ़ने को कहा, तो उसने प्लेटफॉर्म पर आकर सामान रख दिया और दो घंटे इन्तजार करने को कह किसी दूसरे पैसेन्जर (यात्री) की खोज में आगे बढ़ गया।

मैं वहीं अपने सामान को रखकर उसके ऊपर ही बैठ गया। बैठे-बैठे सोचने लगा कि यही पटना है, जहां कभी तीन दिन तक न खाने की व्यवस्था हो सकी थी और न रहने की। बाद में एक परचून दुकान वाले के कहने पर बम्बई चला गया। पुरानी स्मृति मानस पटल पर चलचित्र की तरह एक-एक कर आती गई कि कैसे दिनभर भटकते, भूखे पेट एक फुटपाथ के चाय-नाश्ता के दुकानदार से बहुत आरजू की कि यहां कोई काम मिल जाए।

बम्बई जैसे शहर में भी विरजू जैसा आदमी मिल सकता है, सपने में भी नहीं सोचा था मैंने। उसने अपनी दुकान में खाना खिलाया। रात में उसी खाने वाले बेंच को साफ कर सोने के लिए जगह दी और मेरी सारी जानकारी लेकर एक-दो दिन यहीं रूकने को कहकर मेरी नौकरी का इन्तजाम करने लग गया।

भगवान की कृपा से एक फैक्टरी में मेरा इन्तजाम हो गया, दरबान की जगह पर। अब दिनभर सोता, रात को दरबानी करता। खाना, नाश्ता, चाय, विरजू के यहां ही होता। विरजू मेरे लिए भगवान हो गया। डूबते को तिनके का सहारा मैं विरजू को विरजू चाचा कहने लगा। हफ्ता मिलता, विरजू चाचा का हिसाब करता और जो बचता, उन्हीं के पास जमा कर देता। समय किसी तरह से कटने लगा। 

Diese Geschichte stammt aus der Naye Pallav 15-Ausgabe von Naye Pallav.

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