कसबे का आदमी
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सुबह पांच बजे गाड़ी मिली। उसने एक कंपार्टमेंट में अपना बिस्तर लगा दिया। समय पर गाड़ी ने झांसी छोड़ा और छह बजते-बजते डिब्बे में सुबह की रौशनी और ठंडक भरने लगी। हवा ने उसे कुछ गुदगुदाया। बाहर के दृश्य साफ हो रहे थे, जैसे कोई चित्रित कलाकृति पर से धीरे-धीरे ड्रेसिंग पेपर हटाता जा रहा हो। उसे यह सब बहुत भला - सा लगा। उसने अपनी चादर टांगों पर डाल ली। पैर सिकोड़कर बैठा ही था कि आवाज सुनाई दी, ' पढ़ो पटे सित्ताराम सित्ताराम...'
कमलेश्वर
कसबे का आदमी

उसने मुड़कर देखा, तो प्रवचनकर्ता की पीठ दिखाई दी। कोई खास जाड़ा तो नहीं था, पर तोते के मालिक, रूई का कोट, जिस पर बर्फीनुमा सिलाई पड़ी थी और एक पतली मोहरी का पाजामा पहने नजर आए। सिर पर टोपा भी था और सीट के सहारे एक मोटा-सा सोंटा भी टिका था। पर न तो उनकी शक्ल ही दिखाई दे रही थी और न तोता। फिर वही आवाज गूंज उठी, 'पढ़ो पटे सित्ताराम सित्ताराम...'

सभी लोगों की आंखें उधर ही ताकने लग गईं। आखिर उससे न रहा गया। वह उठकर उन्हें देखने के लिए खिड़की की ओर बढ़ा। वहां तोता भी था और उसका पिंजरा भी, और उसके हाथ में आटे की लोई भी, जिससे वे फुरती से गोलियां बनाते जा रहे थे और पक्षी को पुचकारपुचकारकर खिलाते जा रहे थे। पर तोता पूरा तोता-चश्म ही था। उनकी बार-बार की मिन्नत के बावजूद उसका कंठ नहीं फूटा। गोलियां तो वह निगलता जा रहा था, पर ईश्वर का नाम उसकी जबान से नहीं फूट रहा था। लौटते में एक नजर उसने उन पर और डाली, तो लगा, जैसे चेहरा पहचाना हुआ है।

वह अपनी सीट पर आकर बैठ गया। दिमाग पर बहुत जोर डाला, पर याद नहीं आया। तभी उन्होंने तोते की ओर से दृष्टि हटाकर शिवराज की ओर देखा, अंगूठा और तर्जनी निरंतर एक रफ्तार से अब भी गोली को शक्ल प्रदान कर रहे थे। माथे पर लहरें डालते हुए और आंखों को गोल कर कुछ अजीब निरीह-सा मुंह बनाकर वे शिवराज को संबोधित करते हुए बोले, "शिब्बू शिवराज है न तू?" और अपना नाम उनके मुंह से सुनते ही उसे सब याद आ गया। ये तो छोटे महराज हैं।

वे जाति के वैश्य थे, पर कर्म के कारण महराज पुकारे जाने लगे थे। म्युनिसिपालिटी की दुकानों के पासवाली इमली के नीचे बैठकर वे पानी पिलाया करते थे। कस्बे की सबसे रौनकदार जगह वही थी। वहीं कुएं पर छोटे अपनी टांगें तोड़े, जांघ तक धोती सरकाए, जनेऊ डाले, चुटिया फहराए, नंगे बदन टीन की टूटी कुरसी पर जमे रहते। गांववाले पानी पीकर एक-आध पैसा उनके पैरों के बीच उसी कुरसी पर रखकर चल देते। पैसा पाकर वह सामर्थ्य-भर आशीर्वाद देते। जब एक कूल्हा दर्द करने लगता, तो दूसरी तरफ जोर डालने के लिए थोड़ा-सा कसमसाते और इसमें अगर कहीं कुरसी ने खाल दाब ली, तो तीन-चार मिनिट लगातार कुरसी को गालियां देते रहते। लगे हाथों ननकू हलवाई को भी कोसते, जिसने प्याऊ के लिए यह कुरसी दी थी।

Diese Geschichte stammt aus der Naye Pallav 20-Ausgabe von Naye Pallav.

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