जबलपुर के महानायक श्री हरिशंकर परसाई
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व्यंग्य लेखन के बेताज बादशाह श्री हरिशंकर परसाई जबलपुर में हमारे पड़ोसी थे। बचपन से मैं उन्हें परसाई मामा कहती आई हूं । मैंने उनके बूढ़े पिताजी को भी देखा है, जिन्हें सब परसाई दद्दा कहते थे। वह दिनभर घर के बाहर डली खटिया पर लेटे या बैठे तंबाकू खाया करते थे। मैं बचपन में उनके तंबाकू खाने की नकल किया करती थी। सबका मनोरंजन होता और सब बार-बार मुझसे उनके तंबाकू खाने की एक्टिंग करवाते थे।
डॉ. गीता पुष्प शॉ
जबलपुर के महानायक श्री हरिशंकर परसाई

परसाई मामा की मां पहले ही गुजर चुकी थीं। पिता और पांच भाई-बहन, इतना बड़ा परिवार होने के कारण परसाई जी को मैट्रिक पास करते ही नौकरी करनी पड़ी। जब वे हॉफ पैंट पहनते थे, तब खंडवा के स्कूल में पढ़ाते थे। यहां उन्होंने फिल्म अभिनेता व गायक किशोर कुमार को छठी कक्षा में पढ़ाया था। परसाई मामा बताते थे कि किशोर अपने बड़े भाई अशोक कुमार के गाने गाकर सुनाया करता था। 

परसाई जी ने प्राइवेट स्कूलों में भी पढ़ाया। उन्हें वन विभाग में सरकारी नौकरी भी मिली थी। सारिका पत्रिका में प्रकाशित गर्दिश के दिन कॉलम में उन्होंने लिखा था कि उस नौकरी के दौरान वे जंगल में सरकारी टपरे में रहते थे। ईंटों पर पटरा बिछाकर उस पर बिस्तर डालकर सोते थे। रात भर पटरे के नीचे मिट्टी के गड्ढे में से चूहे निकलकर उनके ऊपर उछल-कूद करते रहते थे। बाद में उन्होंने सरकारी नौकरी भी छोड़ दी। गर्दिश के दिन खत्म कहां होते हैं, उनकी सीरीज चलती रहती है। परसाई जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। 

अचानक पिता की मृत्यु होने के बाद व बड़े भाई होने के कारण घर-परिवार संभालने की जिम्मेदारी उनके सर पर आ गई। उन्होंने परिवार को संभाला। साथ में पढ़ाई की, बहनों की शादी की। परसाई मांस्साब से स्वतंत्र लेखक बन गए। उस जमाने में लेखकों को पारिश्रमिक मिलता था, जिससे जीविका चलाई जा सकती थी। बशर्ते लेखन में मेहनत बहुत करनी पड़ती थी, पर आजकल तो पहले टीवी, फिर मोबाइल फोन आने के कारण पाठक कम हो गए हैं और कई नामी पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया है। जो पत्र-पत्रिकाएं चल रही हैं, उनमें से कइयों ने लेखकों को पारिश्रमिक देना बंद कर दिया है।

परसाई जी के संघर्षों के बीच ही उनकी बहन सीता के पति का निधन हो गया। वे अपने पांच बच्चों सहित फिर घर लौट आईं। अब परसाई जी पर इन सबके पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी आ गई थी। पर उन्होंने हार नहीं मानी और कमर कसकर कलम चलाने लगे। इसी कारण उन्होंने अपनी शादी नहीं रचाई और आजीवन कुंवारे रहे। याद आता है, तब होली के समय अखबारों में नामी लोगों को टाइटल दिया जाता था या उन पर शब्दों के रंगों की पिचकरियां छोड़ी जाती थी। ऐसे ही एक अखबार ने परसाई जी के कुंवारेपन को छेड़ते हुए टाइटल दिया था रुकोगी नहीं राधिका।

Diese Geschichte stammt aus der Naye Pallav 19-Ausgabe von Naye Pallav.

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