उस समय पूरा देश कोरोना महामारी से जूझ रहा था. कोविड मरीजों को अस्पतालों में बिस्तर नहीं मिल रहे थे, औक्सीजन का अकाल पड़ा था, तभी सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए लौकडाउन लगा दिया था.
संकट के उस दौर में एक तबका ऐसा भी था, जो आपदा को अवसर में बदलने की खातिर लूटखसोट कर रहा था. उस तबके में निजी अस्पताल, मैडिकल स्टोर, एंबुलैंस, पैथोलौजी सैंटर और श्मशान घाट की समिति के वे कर्ताधर्ता शामिल थे, जिन्होंने कोविड मरीजों और उन के घर वालों को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी.
निजी अस्पतालों की ओपीडी में डाक्टरों ने मरीजों को देखना बंद कर दिया और औक्सीजन व बिस्तर की कमी बता कर मनमाने ढंग से वसूली की गई.
मैडिकल स्टोर पर घटिया दवाओं की मनमानी कीमत वसूल की गई. 1,000 रुपए की कीमत के पल्स औक्सीमीटर को 2,000 हजार रुपए से ले कर 3,000 रुपए तक में बेचे गए. लोगों की मजबूरी और परेशानी का फायदा उठा कर भांप लेने वाले प्लास्टिक के स्टीमर 500 रुपए में बेचे गए. कोविड मरीजों को अस्पताल लाने और ले जाने के लिए एंबुलैंस वालों ने मनचाहे दाम वसूल किए.
गाडरवारा के दीपक सिंह ने बताया कि उन के पिता को भोपाल ले जाने के लिए 150 किलोमीटर का किराया तकरीबन 13,000 रुपए लिया गया.
कोरोना महामारी से निबटने में सरकारी कोशिशों की नाकामी अब किसी से छिपी नहीं है. देश के लोगों को अब पुख्ता यकीन हो गया है कि जो सरकार मंदिर और मूर्तियां बनाने को अपनी प्राथमिकता मानती है, उस सरकार से अस्पतालों में बीमारी से लड़ने के इंतजाम की उम्मीद करना बेकार ही है.
23 अप्रैल, 2020 की बात है, जब बुखार के बाद कमजोरी आने पर मैं अपने ससुर को गाडरवारा के अस्पताल में इलाज के लिए ले कर आया. उन का औक्सीजन लैवल जांच में 60 आया था. उन्हें सरकारी अस्पताल में भरती कर औक्सीजन लगा दी गई.
इस के बाद ड्यूटी पर मौजूद महिला डाक्टर ने परचा लिख कर बाजार से दवाएं लाने को कहा.
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