इस अवधि (अक्तूबर से अप्रैल माह) में प्याज की उपलब्धता कम होने के कारण दाम बढ़ जाते हैं. इस के समाधान के लिए खरीफ सीजन में प्याज की खेती कर के प्याज की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है.
भूमि का चयन एवं तैयारी
प्याज की खेती बलुई दोमट एवं दोमट भूमि में अच्छी प्रकार से की जा सकती है. बलुई एवं मटियार भूमि में भी उपयुक्त मात्रा में गोबर की खाद दे कर प्याज सफलतापूर्वक लगाई जा सकती है.
खरीफ में प्याज की खेती के लिए खेत के चयन में सावधानी रखें. चयनित भूमि में जल निकास की सुविधा हो एवं वर्षा का पानी खेत में जमा न होने पाए. प्याज की खेती 5.8 से 6.5 पीएच मान वाली भूमि में सर्वोत्तम होती है. भूमि को ग्रीष्म ऋतु में गहरी जुताई करने के बाद रोपाई करने के लिए 2-3 बार कल्टीवेटर चला कर भुरभुरा बना लेना चाहिए.
किस्मों का चयन
खरीफ में बोने के लिए एग्रीफाउंड डार्क रैड, एन-53, अर्का कल्याण, अर्का प्रगति, भीमा सुपर इत्यादि किस्मों की अनुशंसा की जाती है. खरीफ प्याज की किस्में रोपाई के 100-110 दिनों में खुदाई के लिए तैयार हो जाती है एवं इस का औसत उत्पादन 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है.
बोआई का समय
नर्सरी में पौध तैयार करने के लिए बोआई 15-30 जून तक करना अति आवश्यक है. इस के बाद बोआई करने पर कंद का उत्पादन प्रभावित होता है.
नर्सरी तैयार करना
पौध तैयार करना प्याज की खेती में महत्त्वपूर्ण काम है नर्सरी के लिए उपजाऊ उपयुक्त जल निकास एवं सिंचाई की सुविधायुक्त भूमि का चयन करना चाहिए.
एक हेक्टेयर में प्याज की खेती के लिए 7.5 मीटर लंबी, एक मीटर चौड़ी और जमीन से 15 सैंटीमीटर ऊंची बनाई गई 25 नर्सरी बैड पर्याप्त होती हैं. प्रत्येक तैयार नर्सरी बैड में 40-50 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद और आधा किलोग्राम एनपीके खाद मिलानी चाहिए.
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कचरे के पहाड़ों पर खेती कमाई की तकनीक
वर्तमान में कचरा एक गंभीर वैश्विक समस्या बन कर उभरा है. भारत की बात करें, तो साल 2023 में पर्यावरण की स्थिति पर जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में प्रतिदिन तकरीबन डेढ़ करोड़ टन ठोस कचरा पैदा हो रहा है, जिस में से केवल एकतिहाई से भी कम कचरे का ठीक से निष्पादन हो पाता है. बचे कचरे को खुली जगहों पर ढेर लगाते हैं, जिसे कचरे की लैंडफिलिंग कहते हैं.
सर्दी की फसल शलजम
कम समय में तैयार होने वाली फसल शलजम है. इसे खास देखभाल की जरूरत नहीं होती है और किसान को क मुनाफा भी ज्यादा मिलता है. शलजम जड़ वाली हरी फसल है. इसे ठंडे मौसम में हरी सब्जी के रूप उगाया व इस्तेमाल किया जाता है. शलजम का बड़ा साइज होने पर इस का अचार भी बनाया जाता है.
राममूर्ति मिश्र : वकालत का पेशा छोड़ जैविक खेती से तरक्की करता किसान
हाल के सालों में किसानों ने अंधाधुंध रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग कर धरती का खूब दोहन किया है. जमीन से अत्यधिक उत्पादन लेने की होड़ के चलते खेतों की उत्पादन कूवत लगातार घट रही है, क्योंकि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के चलते मिट्टी में कार्बांश की मात्र बेहद कम हो गई है, वहीं सेहत के नजरिए से भी रासायनिक उर्वरकों से पैदा किए जाने वाले अनाज और फलसब्जियां नुकसानदेह साबित हो रहे हैं.
करें पपीते की वैज्ञानिक खेती
पपीता एक महत्त्वपूर्ण फल है. हमारे देश में इस का उत्पादन पूरे साल किया जा सकता है. पपीते की खेती के लिए मुख्य रूप से जाना जाने वाला प्रदेश झारखंड है. यहां उचित जलवायु मिलने के कारण पपीते की अनेक किस्में तैयार की गई हैं.
दिसंबर महीने के जरुरी काम
आमतौर पर किसान नवंबर महीने में ही गेहूं की बोआई का काम खत्म कर देते हैं, मगर किसी वजह से गेहूं की बोआई न हो पाई हो, तो उसे दिसंबर महीने के दूसरे हफ्ते तक जरूर निबटा दें.
चने की खेती और उपज बढाने के तरीके
भारत में बड़े पैमाने पर चने की खेती होती है. चना दलहनी फसल है. यह फसल प्रोटीन, फाइबर और विभिन्न विटामिनों के साथसाथ मिनरलों का स्त्रोत होती है, जो इसे एक पौष्टिक आहार बनाती है.
रोटावेटर से जुताई
आजकल खेती में नएनए यंत्र आ रहे हैं. रोटावेटर ट्रैक्टर से चलने वाला जुताई का एक खास यंत्र है, जो दूसरे यंत्रों की 4-5 जुताई के बराबर अपनी एक ही जुताई से खेत को भुरभरा बना कर खेती योग्य बना देता है.
आलू खुदाई करने वाला खालसा पोटैटो डिगर
खालसा डिगर आवश्यक जनशक्ति और समय बचाता है. इस डिगर को जड़ वाली फसलों की खुदाई के लिए डिजाइन किया गया है. इस का गियर बौक्स में गुणवत्तापूर्ण पुरजों का इस्तेमाल किया गया है, जो लंबे समय तक साथ देने का वादा करते हैं.
कृषि एवं कौशल विकास से ही आत्मनिर्भर भारत बन सकेगा
बातचीत : गौतम टेंटवाल, कौशल विकास एवं रोजगार मंत्री, मध्य प्रदेश
गेहूं में खरपतवार नियंत्रण के प्रभावी उपाय
खरपतवार ऐसे पौधों को कहते हैं, जो बिना बोआई के ही खेतों में उग आते हैं और बोई गई फसलों को कई तरह से नुकसान पहुंचाते हैं. मुख्यतः खरपतवार फसलीय पौधों से पोषक तत्त्व, नमी, स्थान यानी जगह और रोशनी के लिए होड़ करते हैं. इस से फसल के उत्पादन में कमी होती है.