परमात्मा ने मनुष्य जैसी सर्वश्रेष्ठ कृति का निर्माण किया जो किसी भी चमत्कार से कम नहीं है। मानव शरीर स्वयं में अनमोल है। श्वास का आना और संपूर्ण शरीर के रोम-रोम में ऑक्सीजन का पहुंचना (respiration), भोजन खाना और उसका रक्त, रस, मज्जा, अस्थि व मल में परिवर्तन होना (digestion or egestion), वीर्य रस का भ्रूण में परिवर्तित होना और संतान का उत्पन्न होना (reproduction), ये सभी कार्य मनुष्य के मस्तिष्क द्वारा संचालित होते हैं । तंत्रिका तंत्र में विचारों का आना-जाना, फिर शरीर का उस आदेश पर क्रियात्मक हो जाना (creativity) ये सभी क्रियाएं शरीर में अनवरत चलती रहती हैं। मानव भले ही सोता हो परंतु शरीर के अंदर ये सभी अंग अपना काम निरंतर करते रहते हैं।
प्रभु ने मानव को पूर्ण बनाया है। पहले पांच तत्त्वों से प्रकृति का निर्माण हुआ। इन्हीं पांच तत्त्वों से प्रभु के द्वारा इस चमत्कारिक शरीर की सुंदर रचना की गई, जिसे मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर में आत्मा का वास होता है। इस मंदिर रूपी शरीर की अपनी ही प्रकृति होती है। व्यक्तिगत, शारीरिक तथा मानसिक बनावट की विशिष्टताओं को प्रकृति कहा गया है। प्रत्येक व्यक्ति की मूलत: तीन प्रकार की प्रकृति होती है।
1. कफ प्रकृति।
2. पित्त प्रकृति।
3. वात प्रकृति।
आयुर्वेद के अनुसार-
वायु पितं कफश्चेति त्रयों समासतः विकृता अ विकृता देहं हनन्ति ते वर्त्तयन्ति च।
ते व्यापिनो अपि हन्नाभ्योरचोम ध्योह वर्सश्रयाः ॥
अर्थात्-
वात, पित्त और कफ ये तीन दोष शरीर में जाने जाते हैं। ये दोष यदि विकृत हो जाएं तो शरीर को हानि पहुंचाते हैं और कभी-कभी मृत्यु का कारण बन जाते हैं । यदि ये वात, पित्त और कफ सामान्य रूप से संतुलन में रहें तो शरीर की सभी क्रियाओं का संचालन करते हुए शरीर का पोषण करते हैं । यद्यपि ये वात, पित्त और कफ शरीर के सभी भागों में रहते हैं। लेकिन विशेष रूप से वात नाभि से नीचे वाले भाग में, पित्त नाभि और हृदय के बीच में, कफ हृदय से ऊपर वाले भाग में रहता है।
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