हालांकि खुशी का यह वक्त थोड़ा ही है क्योंकि अगले कुछ महीने अगर ज्यादा नहीं तो पिछले दो महीनों की तरह ही कड़ी मेहनत की मांग करेंगे. उल्लेखनीय है कि गुजरात विधानसभा के चुनाव आम चुनाव से बमुश्किल 15 महीने पहले होते हैं, इसलिए नई सरकार को आम चुनाव होने तक चुनावी सजगता की स्थिति में रहना होता है. आखिर, जीत की कीमत सर्वोच्च स्तर की सतर्कता ही होती है.
लेकिन जैसे-जैसे चुनाव का उत्साह कम हो रहा है, वैसे-वैसे लोग 'पुरानी वाली 'नई सरकार की वास्तविकता को समझने लगे हैं. सरकार के बारे में किसी प्रकार की निष्क्रियता की धारणा न पनपने देने के लिए राज्य नेतृत्व को 2022 वाली गति को 2024 तक बनाए रखना है, अर्थव्यवस्था में सुधार पर सक्रियता से काम करना है, नौकरियां पैदा करनी हैं और साथ ही, कमजोर आय वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के आरक्षण के कार्यान्वयन एवं समान नागरिक संहिता (यूसीसी) जैसे विवादास्पद मुद्दों से निबटना है. 2014 से भाजपा गुजरात की सभी 26 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर रही है और कुल मतों में उसकी हिस्सेदारी हर बार बढ़ी है. फिर भी, उम्मीदें और इस कारण से सत्ता विरोधी लहर का एक झोंका भी खतरनाक साबित हो सकता है. दरअसल आप सर्वोच्च स्तर में सुधार नहीं कर सकते, केवल नीचे आ सकते हैं. ऐसा न होने देना पूरी तरह से पटेल और उनकी टीम पर निर्भर है.
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अब आई मगरमच्छों की बारी
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नहरें: थीं तो बेशक ये पानी के ही लिए
सीवान शहर के पास जुड़कन गांव के कृष्ण कुमार अपने गांव में खुदी पतली-सी नहर की पुलिया पर बैठे मिले. ऐन नहर के किनारे उनका पंपसेट लगा था, जिससे वे अपने खेत की सिंचाई कर रहे थे. वे नहर के बारे में पूछते ही उखड़ गए और कहने लगे, \"50 साल पहले नहर की खुदाई हुई थी. हमारे बाप-दादा ने भी इसके लिए अपनी जमीन दी. हमारा दस कट्ठा जमीन इसमें गया. जमीन का पैसा मिल गया था. मगर इस नहर में एक बूंद पानी नहीं आया. सब जीरो हो गया, जीरो पानी आता तो क्या हमको पंपसेट में डीजल फूंकना पड़ता.\"