पहले थोड़ी हल्की-फुल्की बातें. जब वे 16 बरस के थे, उनके माता-पिता ने क्रिसमस के तोहफे में उन्हें एक इस्तेमाल की हुई मोटरसाइकिल खरीदकर दी थी.
केरल के पलक्कड जिले के अपने गृहनगर शोरानूर में धान के खेतों में उसे चलाना सीखते वक्त उस धूल भरे रास्ते पर रेस की प्रैक्टिस करती सवारों की एक टोली ने उनके किशोर मन पर गहरी छाप छोड़ी. हफ्ते भर बाद ही हरित नोआ अपनी पहली रेस में हिस्सा ले रहे थे. उसमें अच्छी शुरुआत के बाद वे सबसे आखिरी रहे. पर फिर भी कहानी में मोड़ तो आ ही चुका था.
एक विजेता की बनावट
दरअसल, नोआ रेस के दौरान अपनी टाइमिंग या रोजाना की अपनी पोजिशन पर नजर नहीं रखते. अपनी 30वीं सालगिरह के दो दिन बाद शोरानूर से इंडिया टुडे के साथ बात करते हुए वे कहते हैं, "मेरे मेंटल ट्रेनर और मेरा मानना है कि मेरे लिए वह सब जानना ही हमारे लिए अच्छा है. डकार इतनी लंबी रेस है और उसमें इतनी सारी चीजें हैं कि गड़बड़ हो सकती है. अंतिम नतीजा कई सारी चीजों पर निर्भर करता है. कुछ पर आपका नियंत्रण हो सकता है, कुछ पर नहीं. मैं तो बस राइडिंग के अगले किलोमीटर पर फोकस करने की कोशिश करता हूं. उसका रास्ता मुझे जहां भी ले जाता है, वहीं पहुंचने का हकदार रहता हूं. मुझे उससे खुश होना चाहिए."
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