आस्था बनाम सियासत
Outlook Hindi|February 05, 2024
इस राष्ट्र राज्य और लोकतंत्र से भी पांच गुना पुराना राम मंदिर का विवाद 22 जनवरी को हो रही प्राण प्रतिष्ठा के बाद खत्म होगा या नए सिरे से जिंदा, यह सवाल पूरे समाज को मथ रहा है, कहीं बेचैनी और कहीं भक्ति की लहर
राजीव नयन चतुर्वेदी
आस्था बनाम सियासत

बात 27 दिसंबर, 1987 की है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्य और ऑर्गनाइजर में विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंहल की तस्वीर के साथ एक खबर छपी। खबर में लिखा था कि रामभक्तों की जीत हुई और कांग्रेस शासन ने मंदिर निर्माण के लिए अपने अपने घुटने टेक दिए और इसके लिए ट्रस्ट बन गया है। खबर में इसे राम मंदिर आंदोलन की कामयाबी बताया गया था। उसी दिन दिल्ली में संघ के मुख्यालय केशव सदन, झंडेवालान में एक बैठक हुई जिसमें संघ प्रमुख बालासाहेब देवरस भी मौजूद थे। उन्होंने सबसे पहले अशोक सिंहल को तलब करके पूछा कि तुम इतने पुराने स्वयंसेवक हो, तुमने इस योजना का समर्थन कैसे कर दिया ? सिंहल ने जवाब दिया कि हमारा आंदोलन तो राम मंदिर के लिए ही था, यदि वह स्वीकार होता है तो स्वागत करना ही चाहिए। इस पर संघ प्रमुख उन पर बिफर गए। इस देश में राम के आठ सौ मंदिर हैं, एक और बन ही गया तो आठ सौ एकवां होगा लेकिन यह आंदोलन जनता के बीच लोकप्रिय हो रहा था जिसके बल पर हम दिल्ली में सरकार बना सकते थे। तुमने आंदोलन का ख्याल नहीं रखा है।

यह बात दिवंगत पत्रकार, जनमोर्चा के संस्थापक संपादक और बाबरी मस्जिद राम मंदिर विवाद समाधान के पक्षकार रहे शीतला सिंह ने अपनी किताब अयोध्या: राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का सच में लिखी है। उनका दावा था कि यह बात उन्हें लक्ष्मीकान्त झुनझुनवाला ने बताई थी। अशोक सिंहल से देवरस ने कहा था कि राम मंदिर आंदोलन से महंत अवैद्यनाथ, जसिटस देवकीनंदन अग्रवाल और तमाम स्थानीय और बाहरी नेताओं को बाहर निकाल देना चाहिए क्योंकि मंदिर के निर्माण के प्रस्ताव का स्वागत उनके उद्देश्य की पूर्ति में बाधक होगा।

अब, जबकि राम मंदिर आंदोलन की पीठ पर सवार होकर भाजपा को दिल्ली की सत्ता में आए दस साल हो रहे हैं और मंदिर भी बनने वाला है, क्या यह कहा जा सकता है कि देवरस जिस उद्देश्य की बात कर रहे थे उसकी पूर्ति हो चुकी है? क्या राम मंदिर बनने के बाद भी इस मुद्दे में कुछ सियासी रस बाकी है? 

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