हनुमानजी का प्राकट्य दिवस चैत्री पूनम है। हनुमानजी के जीवन में कर्म को योग बनाने की जो कला है उसमें से थोड़ी भी कला आपके जीवन में आये तो आपका जीवन निष्कलंक नारायण के अनुभव से सम्पन्न हो जायेगा। हनुमानजी सेवा का महत्त्व जानते हैं। नकली सेवक अधिकार चाहते हैं, वासना बढ़ाते हैं और भोगविकार में तबाह हो जाते हैं। असली सेवक अधिकार बिना ही सामनेवाले के तन की तंदुरुस्ती, मन की प्रसन्नता और बुद्धि में बुद्धिदाता का प्रकाश हो इस प्रकार की सेवा करते हैं।
अवतरण की निराली गाथा
हनुमानजी की गाथा कुछ निराली है। दशरथजी द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ करने के बाद अग्निदेव खीर का कटोरा लेकर प्रकट हुए।
वसिष्ठजी ने कहा : “राजन् ! धर्मपत्नी तुम्हारी कौसल्याजी हैं, कैकेयी तो तुम्हारी प्रिया है।"
तो खीर का आधा हिस्सा पहले कौसल्याजी को दिया गया। बाकी आधे भाग का कुछ हिस्सा पहले सुमित्रा को और फिर कैकेयी को दिया गया।
कैकेयी यह जानकर रोष में आ गयी और दशरथजी को बोली : "मेरे को तुमने क्या समझ रखा है ! उनको पहले मिला और मुझे बाद में क्यों ? क्या मैं दासी हूँ?"
इस प्रकार कैकेयी का थोड़ा कुचक्र चला। शिवजी की प्रेरणा से चील आयी और कैकेयी के हाथ से खीर का पात्र उड़ा के अंजन पर्वत पर ले गयी, जहाँ अंजनी देवी दिव्यात्मा पुत्र के लिए तप कर रही थीं। चील ने जाकर उनके हाथ में वह खीर रखी। अंजनी देवी ध्यान में थीं तो उनको पता नहीं चला कि 'यह खीर चील रख गयी है।' उन्होंने माना कि 'मैंने शिवजी की उपासना की तो यह शिवजी ने प्रसाद दिया है।' तो वह प्रसाद खा गयीं। उसीसे गर्भ रह गया और हनुमानजी प्रकट हुए।
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