कोई भी लड़का बोला नहीं तो मास्टर ने कहा : “सभी लड़के हाथ सीधा रखें और इधर आयें।" और वह २-२ फुटपट्टियाँ मारने लगा । सब बच्चे मार खाने लगे। बाल गंगाधर की भी बारी आयी, मास्टर बोला :"हाथ सीधा करो।"
तिलक : "मैंने मूँगफली नहीं खायी तो मार भी नहीं खाऊँगा।"
सब बच्चे देखने लगे कि 'हमने तो डर के मार खायी और यह बोलता है कि 'मैंने मूँगफली नहीं खायी तो मार भी नहीं खाऊँगा' और हिम्मत से खड़ा है!'
हिम्मतवाला होना अच्छा है न?
तो मास्टर गुस्सा हुआ और बाल गंगाधर को डाँटने लगा किंतु वे मास्टर की डाँट से दबे नहीं। मास्टर ने कहा : "क्यों, डर नहीं लगता?"
''मैं झूठ बोलता नहीं, मैंने मूँगफली खायी नहीं तो मैं क्यों डरूँगा, मार क्यों खाऊँगा?"
"किसने मूँगफली खायी बताओ तो?"
"मैं चुगली नहीं करता। झूठ बोलने से मन कमजोर होता है, चुगली खाने से वैर बनता है, ज्यादा बोलने से शक्ति का ह्रास होता है। मैं तो सूर्यनारायण को अर्घ्य देता हूँ, तुलसी के पत्ते खाता हूँ। और मेरी माँ ने मेरे जन्म के पहले सूर्यनारायण की उपासना की थी और वह इसलिए कि 'मेरे को तेजस्वी बालक हो, जो अंग्रेजों के जुल्म से लोहा ले ।' तो मैं तो भारत को आजाद कराने की सेवा में लगनेवाला हूँ। मेरी माँ की जैसी भावना है वैसे ही मेरे अंदर सद्भाव आ रहे हैं। तो मैं काहे को तुम्हारे आगे दब्बू बनूँगा?"
"तुम्हारा इतना हिम्मत ! शट-अप ! शट थर्टी टू! (अपनी बत्तीसी बंद करो ! मुँह बंद करो।)"
बोले : "हम काहे को बंद करें? डरता तो वह है जो जुल्म करता है । हम तो जुल्म करते नहीं तो जुल्मियों से डरेंगे काहे को?"
तो मास्टर को गुस्सा आया, हाथ पकड़ के स्कूल के बाहर कर दिया। बाल गंगाधर तिलक ने जाकर अपने पिता को बताया कि ऐसा- ऐसा हुआ था।
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