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भिखारिन
Naye Pallav
|Naye Pallav 20
जाह्नवी अपने बालू के कम्बल में ठिठुरकर सो रही थी। शीत कुहासा बनकर प्रत्यक्ष हो रहा था। दो-चार लाल धारायें प्राची के क्षितिज में बहना चाहती थीं। धार्मिक लोग स्नान करने के लिए आने लगे थे।
निर्मल की मां स्नान कर रही थी और वह पण्डे के पास बैठा हुआ बड़े कुतूहल से धर्म-भीरु लोगों की स्नान-क्रिया देखकर मुस्करा रहा था। उसकी मां स्नान करके ऊपर आई। अपनी चादर ओढ़ते हुए स्नेह से उसने निर्मल से पूछा "क्या तू स्नान न करेगा?"
निर्मल ने कहा-"नहीं मां, मैं तो धूप निकलने पर घर पर ही स्नान करूंगा।"
पण्डाजी ने हंसते हुए कहा "माता, अबके लड़के पुण्य-धर्म क्या जानें ? यह सब तो जबतक आप लोग हैं, तभी तक है।"
निर्मल का मुंह लाल हो गया। फिर भी वह चुप रहा। उसकी मां संकल्प लेकर कुछ दान करने लगी। सहसा जैसे उजाला हो गया - एक धवल दांतों की श्रेणी अपना भोलापन बिखेर गई– "कुछ हमको दे दो, एक रानी मां!"
निर्मल ने देखा, एक चौदह बरस की भिखारिन भीख मांग रही है। पण्डाजी झल्लाये, बीच ही में संकल्प अधूरा छोड़कर बोल उठे - "चल हट!"
निर्मल ने कहा "मां ! कुछ इसे भी दे दो।"
माता ने उधर देखा भी नहीं, परन्तु निर्मल ने उस जीर्ण मलिन वसन में एक दरिद्र हृदय की हंसी को रोते हुए देखा। उस बालिका की आंखों में एक अधूरी कहानी थी। रूखी लटों में सादी उलझन थी, और बरौनियों के अग्रभाग में संकल्प के जलबिन्दु लटक रहे थे, करुणा का दान जैसे होने ही वाला था।
धर्म-परायण निर्मल की मां स्नान करके निर्मल के साथ चली। भिखारिन को अभी आशा थी, वह भी उन लोगों के साथ चली।
Esta historia es de la edición Naye Pallav 20 de Naye Pallav.
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