भारत केले का प्रमुख उत्पादक देश है, जो 5 लाख हेक्टेयर क्षेत्र से 17.50 मिलियन टन उपज प्रात करता है. यह अधिकतर तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और गुजरात में उगाया जाता है. असम, बिहार, केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भी केले की खेती की जाती है.
जलवायु
केला उष्ण कटिबंधीय फल है, पर यह आर्द्र और उपोष्ण, 2,000 एमएसएल की ऊंचाई को भी सह सकता है. यह कम तापमान और पानी की रुकावट को नहीं सह सकता. नए पत्तों का निकलना और फलों का विकास मुख्यतः तापमान पर निर्भर करता है.
मिट्टी
यह गहरी दोमट, हवादार और हलकी मिट्टी में अच्छा उगता है. यह 6.5 से 8.0 तक के पीएच मान को सह सकता है.
प्रजातियां
ग्रैंड नेने, रोबस्टा, ड्वार्फ केवेंडिश, पूवन, रसथाली, नेंद्रन, कर्पूरवल्ली, नेय पूवन, मोंथान और पहाड़ी केले की कुछ प्रमुख प्रजातियां हैं.
प्रतिपादन
पारस्परिक तरीके से सकर अर्थात पौध या फिर कंदों के जरीए केले के पौधों को उगाया जाता है. चौड़े पानीदार सकरों की अपेक्षा तलवार या खड्ग के आकार के और पतले लंबे पत्तों वाले सकर को चुना जाता है.
छंटाई किए गए सकर अथवा टुकड़ों का वजन 1.0 से 1.5 किलोग्राम तक हो होना चाहिए, जिस में से अंकुर फूट रहा हो. रोपण सामग्री का वर्गीकरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है. इस से फसल का विकास और घारों के निकलने का समय सभी में एकरूपता होती है.
रोपण
रोपण के पहले 45x45×45 सैंटीमीटर गड्ढों में अच्छी तरह सड़ी हुई गोबर की खाद डाली जाती है अथवा उन गड्ढों में 20-30 किलोग्राम प्रति गड्ढा कंपोस्ट भरा जाता है. चुने हुए सकर की अनावश्यक पत्तियां, वानस्पतिक विकास और अत्यधिक जड़ों को काट दिया जाता है.
इन सकरों को सूत्रकृमि एवं तना विविल से बचाने के लिए कंदों को मिट्टी के घोल में 20-40 कण प्रति सकर के हिसाब से कार्बोफ्यूरान डाल कर उस में इन्हें डुबोया जाता है.
जूनजुलाई रोपण के लिए उचित महीने हैं. वैसे तो वर्ष के किसी भी समय रोपण किया जा सकता है, बशर्ते सर्दियों को छोड़ कर अन्य मौसम में सिंचाई की पूरी सुविधा हो.
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उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड
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