भारत को 'मसालों का घर' कहा जाता है, क्योंकि वैश्विक मसाला उत्पादन में यह लगभग 75 फीसदी का योगदान देता है. यहां विभिन्न प्रकार के व्यंजनों के लिए सामान्य से ले कर विशेष मसाले उपयोग किए जाते हैं.
हलदी एक महत्त्वपूर्ण मसाला फसल है, जो अपने औषधीय और व्यावसायिक महत्त्व के लिए जानी जाती है.
यह न केवल हमारे भोजन का स्वाद बढ़ाती है, बल्कि आयुर्वेदिक औषधियों में भी इस का उपयोग होता है. हलदी के उपयोग से शरीर में पोषक तत्त्वों की कमी पूरी होती है. हलदी के पत्तों में पाया जाने वाला करक्यूमिन सौंदर्य समस्याओं के लिए भी एक अच्छा समाधान है.
कच्ची हलदी पाचन तंत्र को स्वस्थ रखती है. इस के सेवन से मेटाबोलिज्म बढ़ता है, जिस से वजन कम करने में मदद मिलती है. हलदी के निर्यात से भारत को अच्छीखासी विदेशी कमाई होती है.
हलदी की वैज्ञानिक खेती निम्नलिखित चरणों के अनुसार की जाती है :
जलवायु : हलदी की खेती उष्ण और उपशीतोष्ण जलवायु में होती है. इस के विकास के लिए गरम और नम जलवायु उपयुक्त होती है, जबकि गांठ बनने के समय 25-30 डिगरी सैल्सियस तापमान की जरूरत होती है. अत्यधिक तापमान और कम आर्द्रता के कारण स्यूडोस्टेम और पत्तियों का विकास धीमा हो सकता है.
भूमि की तैयारी : हलदी की उच्च उपज के लिए जल निकास वाली बलुई दोमट से हलकी दोमट भूमि उपयुक्त होती है. गांठें जमीन के अंदर बनती हैं, इसलिए मिट्टी पलटने वाले हल से 2 बार और देशी हल या कल्टीवेटर से 3-4 बार जुताई कर के और पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी और समतल बना लेना चाहिए. मिट्टी का पीएच मान 4.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए.
खाद एवं उर्वरक : एक हेक्टेयर खेत के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग इस तरह से किया जाता है, जैसे सड़ी गोबर की खाद 250-300 क्विंटल, नाइट्रोजन 120-150 किलोग्राम, फास्फोरस 80 किलोग्राम पोटाश 80 किलोग्राम, जिंक सल्फेट 20-25 किलोग्राम की आवश्यकता होती है. गोबर की खाद बोआई से 15-20 दिन पहले खेत में छिड़क कर जुताई करें. फास्फोरस, पोटाश और जिंक सल्फेट को बोआई से एक दिन पहले खेत में मिला दें. नाइट्रोजन को 3 हिस्सों में बांट कर, पहला भाग बोआई के 40-45 दिन बाद, दूसरा भाग 80-90 दिन बाद और तीसरा भाग 100-120 दिन बाद दें.
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उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड
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