अभी तकरीबन महीने भर पहले 23-24 फरवरी को ही तो कच्चातिवु द्वीप में 4,000 से अधिक भारतीयों ने सालाना सेंट एंथनी उत्सव में हिस्सा लिया था और लगभग उतनी ही संख्या में श्रीलंकाई श्रद्धालु भी उपस्थित थे. मछुआरों के पूज्य संत के भोज के लिए श्रीलंकावासियों ने भोजन, पीने का पानी और साफ-सफाई की सुविधाएं मुहैया कराईं. मगर, अचानक आम चुनाव के पहले भारत के शीर्ष नेताओं की ओर से इस द्वीप को लेकर उठाए विवाद से शायद वे सभी हैरान रह गए होंगे.
भारत और श्रीलंका के बीच 1974 के समुद्री समझौते पर तत्कालीन प्रधानमंत्रियों इंदिरा गांधी और सिरिमा आर. डी. भंडारनायके ने दस्तखत किए थे. उसके मुताबिक, दोनों देशों के बीच समुद्री सीमा को पाक जलडमरूमध्य से एडम ब्रिज, कच्चातिवु तक सीमांकित किया गया. कच्चातिवु 1.9 वर्ग किलोमीटर का निर्जन और बंजर द्वीप है, जो तमिलनाडु के रामेश्वरम के भारतीय तट से लगभग 14 समुद्री मील और उत्तरी श्रीलंका से 10.5 समुद्री मील की दूरी पर स्थित पाक जलडमरूमध्य में लंका की समुद्री सीमा में आता है. समझौते के तहत, भारतीयों को सेंट एंथनी दिवस पर कच्चातिवु के चर्च में जाने की अनुमति है. उस द्वीप पर श्रीलंकाई संप्रभुता को मान्यता देने के बाद 1976 के समझौते में श्रीलंका ने कन्याकुमारी के पास जैव विविधता से समृद्ध समुद्र के 10,000 वर्ग किमी क्षेत्र वाले वाज बैंक पर भारतीय संप्रभुता को मान्यता दी थी.
भाजपा के तमिलनाडु प्रदेश अध्यक्ष के. अन्नामलै ने हाल में तमिल भावनाओं को भड़काकर चुनावी मुद्दा तैयार करने के लिए यह आरोप उछाला कि इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने कच्चातिवु को श्रीलंका को 'सौंप दिया.' तो, फौरन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 31 मार्च को इस मुद्दे को उठा दिया. एक्स पर उन्होंने यह भी लिखा कि इससे 'द्रमुक का दोहरा चरित्र भी खुल गया है.' वे यह इशारा कर रहे थे कि कच्चातिवु को जब कथित तौर पर सौंपा गया, तब द्रमुक के नेता एम. करुणानिधि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री थे. लेकिन बाद में, मौजूदा मुख्यममंत्री एम.के. स्टालिन सहित द्रमुक नेताओं ने हाल के वर्षों में द्वीप को लेकर चिंता व्यक्त की है.
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