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यकीनन भारत खुद ही नहीं, दूसरों को भी प्रदूषण मुक्त या हरित भविष्य की ओर बढ़ने को प्रेरित कर सकता है. दरअसल, भारत कुल मात्रा के मामले में कार्बन उत्सर्जन करने वाला दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश भले हो, मगर इसका प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) उत्सर्जन भी सबसे कम है. अब यह अपने प्रतिबद्ध लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में तेज कदम बढ़ा रहा है, ताकि देश की 50 फीसद ऊर्जा गैर-कार्बन स्रोतों से हासिल हो और 2030 तक 500 गीगावाट से अधिक प्रदूषण मुक्त स्रोतों से बिजली उत्पादन हो. इतना ही नहीं, भारत अपने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान या एनडीसी को पूरा करने में ब्रिटेन और जर्मनी सरीखे विकसित देशों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन कर रहा है. असल में, इन दोनों यूरोपीय देशों ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं पर दबाव के मद्देनजर अपने लक्ष्य घटा दिए हैं. भारत की योजना 2070 तक बिल्कुल शून्य उत्सर्जन के पैमाने को छू लेने की है, जो हाल ही में वैश्विक जलवायु परिवर्तन बैठक में निर्धारित लक्ष्य है.
बस यहीं से भारत की यात्रा थोड़ी पेचीदा होने वाली है. दरअसल 2047 तक हमारी ऊर्जा की जरूरतें दोगुनी होने की उम्मीद है. देश में बिजली की अधिकतम मांग फिलहाल के 245.2 गीगावाट से बढ़कर 2031-32 में 400 गीगावाट तक पहुंचने का अनुमान है. फिर हरित ऊर्जा महंगी भी है. भारत इसके उत्पादन को सस्ता बनाने के लिए टेक्नोलॉजी पर आश्रित है. ऊपर से समय-सीमा का भी मामला है. जैसा कि चेक- कनाडाई वैज्ञानिक तथा नीति विश्लेषक वाक्लाव स्मिल कहते हैं, "एक प्रमुख ईंधन से बड़े पैमाने पर दूसरे में बदलाव में आम तौर पर 50-60 साल लगते हैं. इसके लिए एक नहीं, कई पीढ़ियों के पक्के इरादों की दरकार होगी." फिलहाल उपलब्ध लगभग सभी वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों से उत्पादन के लिए भारत अहम कच्चे माल और मशीनरी के आयात पर निर्भर है, जबकि चीन महत्वपूर्ण खनिजों और 'रेयर अर्थ' का अपरिहार्य स्रोत बन गया है.
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उथल-पुथल का आलम
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