न तो हाथी जैसा विशालकाय, न ही बाघ-शेर जैसा रुआबदार शिकारी और न कोबरा सांप जितना जानलेवा जहर. झुंड की ताकत, रुआब की जगह दिमाग और चुपचाप दबोच लेने की धारदार चालाकी. ये हम इंसान हैं. हमारे पुरखे कुछ हजार साल पहले इन्हीं वजहों से तो जंगलों में बचे रहे. बाहर निकलकर फौलाद और सीमेंट के अपने जंगल बनाए और दीवारों के साथ पैदा हुए भ्रम में रहने लगे. हमारे जंगली दिन स्कूल की किताबों में दर्ज हैं. लेकिन लखनऊ से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर बहराइच में हमारे पुरखों के जंगली साथी इंसानी बस्तियों में घुस आए हैं, इतिहास का आईना बनकर. घाघरा और कतर्नियाघाट के जंगलों के बीच महसी तहसील में भेड़ियों का झुंड हमें हमारा ही सबक याद दिला रहा है, कि बचे रहने की विधा सीख ली तो एक सौ अस्सी किलो वजन के शेर को चौदह किलो वजन का बच्चा पिंजरे के इस पार खड़े होकर उसे ठेंगा दिखा सकता है. भेड़ियों का यह बर्ताव जितना नया है, उतना ही डरावना है. इसी इलाके के पचास से ज्यादा गांवों में इतना डर तब भी नहीं था जब दो साल पहले एक बाघ ने तीन लोगों को मार डाला था. सिर्फ इसी साल तेंदुओं के हमले में चार लोग मारे गए हैं और सत्रह घायल हुए. लेकिन भेड़िए न तो बाघ की तरह ताकत इस्तेमाल करते हैं और न तेंदुओं की तरह उसक से नजर में आते हैं. यह भेड़ियों का छापामारों की तरह हमला करके गायब हो जाना है, जिससे लोग डरे हुए हैं. 10 लोगों को मारने और 35 से ज्यादा को घायल करने के बाद भी भेड़िए शिकार पर निकले हैं.
महसी तहसील के ही गरेठी गांव में कमल की ढाई साल की बेटी को एक भेड़िया घर में घुसकर दबोच ले गया. रोते- चीखते घर और गांववालों को डेढ़ किलोमीटर दूर बिटिया की लाश मिली. जंगलात महकमे के ड्रोन और पिंजरों पर भेड़ियों का झुंड भारी पड़ रहा है. पलक झपकते गायब हो सकने वाले भेड़िए अपने मुखिया के अनुशासन में पूरी एकता से रेकी और रात भर पीछा करके शिकार पर झपटते हैं. दिन के उजाले में भी लाठियों और लोहे की रॉड से लैस होकर चल रहे गांव वाले समझ रहे हैं कि भेड़िए पीछा कर रहे हैं और इंतजार भी, माकूल वक्त आने का. गांव वालों के साथ पुलिस और वन विभाग की कई टीमें गश्त पर हैं. सालों से खुले घरों में दरवाजे लगा दिए गए हैं.
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अब आई मगरमच्छों की बारी
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नहरें: थीं तो बेशक ये पानी के ही लिए
सीवान शहर के पास जुड़कन गांव के कृष्ण कुमार अपने गांव में खुदी पतली-सी नहर की पुलिया पर बैठे मिले. ऐन नहर के किनारे उनका पंपसेट लगा था, जिससे वे अपने खेत की सिंचाई कर रहे थे. वे नहर के बारे में पूछते ही उखड़ गए और कहने लगे, \"50 साल पहले नहर की खुदाई हुई थी. हमारे बाप-दादा ने भी इसके लिए अपनी जमीन दी. हमारा दस कट्ठा जमीन इसमें गया. जमीन का पैसा मिल गया था. मगर इस नहर में एक बूंद पानी नहीं आया. सब जीरो हो गया, जीरो पानी आता तो क्या हमको पंपसेट में डीजल फूंकना पड़ता.\"