"बचपन में जब रोना आता है तो बड़े बोलते हैं आंसू पोंछो. जब गुस्सा आता है तो बड़े कहते हैं मुसकराओ ताकि घर की शांति बनी रहे. नफरत करना चाहे, तो इजाजत नहीं दी और जब प्यार करना चाहे तो पता चला यह साला इमोशनल सिस्टम ही गड़बड़ा गया, काम नहीं कर रहा, काम नहीं कर सकता. रोना, गुस्सा, नफरत कुछ भी खुल के ऐक्सप्रेस नहीं करने दिया. अब प्यार कैसे ऐक्सप्रैस करे?"
फिल्म 'डियर जिंदगी' में शाहरुख खान के ये डायलोग जिस बात और मनोस्थिति की तरफ इशारा करते हैं वे वर्तमान में हर युवा की इमोशनल हालत को रिप्रेजेंट करते हैं.
"ऐसे ही 'लंचबॉक्स' जैसी फिल्म जो मिडल ऐज के लोगों में पनप रहे अकेलेपन को बयां करती है और 'तमाशा, "तारे जमी पर बर्फी, 'लुटेरा' और 'इंगलिशविंगलिश' जैसी कितनी फिल्मों में किरदारों के माध्यम से अकेलेपन या लोनलीनैस जैसी समस्या को सामने रखने की कोशिश की गई है जोकि पिछले दशकों में बढ़ती ही जा रही है. इसे नजरअंदाज किया जा रहा है.
क्या है स्थिति
अकसर हम परेशानी में, गुस्से में या उदासी में अपने आप को जाहिर करने के बजाय उसे दबाते चले जाते हैं, जो आगे चल कर उन्हें अकेलेपन की ओर धकेल देती है. असुरक्षा और रिश्तों में बढ़ती अविश्वसनियता के चलते और कभीकभार परिस्थितियों के कारण लोगों में खासकर युवा पीढ़ी में पहले के मुकाबले अकेलेपन की समस्या बढ़ती जा रही है. कहीं न कहीं आप को ऐसे लोग मिल ही जाएंगे जो अकेलेपन की समस्या से जूझ रहे हैं.
अकेलापन थोड़ा बहुत मात्रा में सभी में रहता ही है इसलिए इसे अकसर नजरअंदाज किया जाता रहा है, जबकि अकेलापन व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक दोनों पहलुओं को प्रभावित करती है. डब्ल्यूएचओ भी इस बात से इनकार नहीं करता कि अकेलापन गंभीर स्वास्थ्य समस्या के तौर पर उभर रहा है खासकर युवाओं के इस से प्रभावित होने की संभावना तेजी से बढ़ी है.
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