मैंने मौत को अपने पीछे लपकते देखा। मैं ज़िंदगी के लिए भागता रहा और मौत पीछा करते-करते अचानक रास्ते में रुक गई। उखड़ती सांसों को संभाले मैने मुड़कर जब पीछे देखा तो मौत अपना रास्ता बदल चुकी थी। शायद मैं ही ग़लत था, बिना बुलाए उसके दरवाज़े पर दस्तक दे रहा था। हाथियों ने मुझे हुंकारकर वापस लौट जाने की चेतावनी भी दी, मगर मैं चंद तस्वीरों के लिए उनके रास्ते में खड़ा रहा। उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ, लामबंद होकर जब वो मेरी तरफ़ टूट पड़े तो मैं तब तक भागता रहा, जब तक कि मौत के क़दमों की आहट कानों से दूर ना हुई। फ़्लैश बैक में जाता हूं तो सोचकर रूह थर्रा जाती है।
यह वर्ष 2016 की बात है। छत्तीसगढ़ राज्य के बेलगहना वनक्षेत्र में 13 हाथियों की तस्वीर लेने के दौरान का वाक़या। ये वह दौर था जब मुझे हाथियों के बारे में खास जानकारी नहीं थी। उनके स्वभाव से अनजान, महज़ जिज्ञासा के साथ मैं जंगल के भीतर पहुंचा, जहां उनका एक झुंड विश्राम कर रहा था। वहां उनके शिशु भी थे। कहते हैं हाथी सबसे समझदार और संवेदनशील वन्यप्राणी है। एक निश्चित दूरी के बाद इन जंगली हाथियों के दल को आसपास इंसानी गंध का अहसास हुआ। पूरा झुंड अब चौकन्नी मुद्रा में था। मुझे समझ नहीं आया कि हाथी अचानक इतने सतर्क कैसे हो गए। उन्होंने दो-तीन बार धूल फेंककर शायद मुझे वहां से निकल जाने का इशारा किया, मगर जानकारी के अभाव में मैं उस दृश्य के रोमांच में खोया रहा।
この記事は Aha Zindagi の August 2024 版に掲載されています。
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अंतरिक्ष केंद्र सतीश धवन
श्रीहरिकोटा स्थित उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र का नाम जिनके नाम पर 'सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र' है, वे सही मायनों में भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के केंद्र रहे हैं।
हरी-हरी धरती पर हर
वर्षा की विदाई वेला है। नदियों का कलकल निनाद गूंज रहा है, धरती ने हरीतिमा की चादर ओढ़ रखी है, प्रकृति का हर हिस्सा खिला-खिला, मुस्कराता-सा लग रहा है।
गजानन सुख कानन
भाद्रपद माह की शुक्ल चतुर्थी श्रीगणेश के आगमन की पुण्यमय तिथि है। देव अपना लोक छोड़ मर्त्य मानवों के निवास में उन्हें तारने आ बैठते हैं।
जब मंदिर में उतर आता है चांद
यायावर के सफ़र में तयशुदा गंतव्य तो उसका पसंदीदा होता ही है, राह के औचक पड़ाव भी कोई कम मोहक नहीं होते। बस, दरकार होती है एक खुले दिल और उत्सुक नज़र की। महाराष्ट्र के फलटण से खिद्रापुर के बीच की दूरी यात्रा की परिणति से पहले के छोटे-छोटे आनंद को संजोए हुए है इस बार की यायावरी।
भावनाओं के क़ैदी...
भावनाएं और तर्क हमारे व्यक्तित्व के दो अहम हिस्से हैं और दोनों ही ज़रूरी हैं। लेकिन कभी भावनाएं प्रबल हो जाती हैं तो तार्किक बुद्धि मौन हो जाती है। इसके चलते तनाव बेतहाशा बढ़ जाता है, आवेग में निर्णय ले लिए जाते हैं और फिर अक्सर पछताना ही पड़ता है। यही 'इमोशनली हाईजैक' होना है। जीवन का सुकून इससे उबरने की हमारी क्षमता पर निर्भर करता है।
मेरा वो मतलब नहीं था!
हमारे शब्द सामने वाले को चोट पहुंचा जाते हैं, फिर हम माफ़ी मांगते हुए सफाई देते हैं कि हमारा वह इरादा नहीं था। सवाल उठता है कि अगर इरादा नहीं था तो फिर वैसे शब्द मुंह से निकले कैसे?
...जहां चाह वहां हिंदी की राह
भाषा के मामले में असल चीजें हैं प्रवाह और प्रयोग...हिंदी शब्द समझने में सरल होंगे, अर्थ को ध्वनित करेंगे, और उनका नियमित प्रयोग होगा तो किसी भी क्षेत्र में अंग्रेज़ी शब्दों की घुसपैठ के लिए कोई बहाना ही नहीं बचेगा...
हिंदी के ज्ञान से सरल विज्ञान
पहले हमने दुनिया को विज्ञान का ज्ञान दिया और अब खुद एक विदेशी भाषा में विज्ञान पढ़ रहे हैं। इस बीच आख़िर हुआ क्या? विज्ञान आगे बढ़ गया और हिंदी पीछे रह गई या फिर हमने अपनी भाषा की क्षमता को जाने बग़ैर ही उसे अक्षम मान लिया?
फिल्म नगरिया की भाषा
कितनी अजीब बात है कि हिंदी फिल्म उद्योग की भाषा हिंदी नहीं है। हिंदी फिल्मों में शुद्ध हिंदी का मज़ाक़ बनाया जाता है। सेट पर बातचीत अंग्रेज़ी में होती है, पटकथा अंग्रेज़ी में लिखी जाती है और संवाद रोमन में। हिंदी फिल्मों से करोड़ों कमाने वाले सितारे हिंदी बोलने में हेठी देखते हैं। हालांकि इस घटाटोप के बीच अब आशा की कुछ किरणें चमकने लगी हैं...
हिंदी किताबों में हिंदी
कोई बोली, भाषा बनती है जब वह लिखी जाती है, उसमें साहित्य रचा जाता है और विविध विषयों पर किताबें छपती हैं। पुस्तकों में भाषा का सुघड़ रूप होता है। हिंदी भाषा की विडंबना है कि उसकी किताबों में अंग्रेज़ी शब्दों की आमद बढ़ती जा रही है। कुछ को यह ज़रूरी लगती है तो बहुतों को किरकिरी। सबके अपने तर्क हैं। 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर आमुख कथा का पहला लेख इस अहम मुद्दे पर पड़ताल कर रहा है कि हिंदी किताबों में हिंदी क्यों घटती जा रही है?