दरभंगा के इस अस्पताल में हमारी पहली मुलाकात और बात मिसरी सादा से हुई. वे हड्डी वार्ड में फ पर लेटे मिले. उनके पांव की हड्डी टूटी हुई है, जिस पर कच्चा प्लास्टर चढ़ा है. वे अपने ही घर के कंबल पर जैसे-तैसे लेटे हैं. वे दरभंगा शहर से तकरीबन 20 किमी दूर शिवराम गांव से अपनी पत्नी सहोदया देवी के साथ यहां एक रोज पहले आए थे. उन्हें भर्ती तो कर लिया गया, मगर बेड नहीं मिला. लिहाजा 30-35 घंटे से फर्श पर लेटे अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं. मिसरी सादा को आने वाले कुछ दिनों में बेड मिल जाएगा, ऐसी संभावना नहीं लगती, क्योंकि उनके ठीक बगल में दसवीं का एक छात्र मोहम्मद जव्वाद, जिसके हाथ की हड्डी टूट गई है, पिछले चार दिनों से अपनी मां के साथ फर्श पर लेटा अपनी बारी आने का इंतजार कर रहा है. इसी बिल्डिंग की सातवीं मंजिल पर एक अन्य मरीज सात-आठ साल का बच्चा मोहम्मद चांद तो पिछले एक हफ्ते से फर्श पर लेटे हुए बेड मिलने का इंतजार कर रहा है. उसके भी हाथ की हड्डी टूट गई है. सातवीं मंजिल के एक खुले बरामदे में मोहम्मद चांद के साथ छह दूसरे मरीजों को इसी तरह जगह मिली है. उस खुली जगह में पंखा तक नहीं है.
ये दृश्य 76 साल पहले स्थापित हुए एक जमाने में बिहार के सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज अस्पताल, दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल (डीएमसीएच) के हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस अस्पताल के आउट पेशेंट वार्ड (ओपीडी) में हर रोज औसतन 1,422 मरीज पहुंचते हैं और 1,050 बेड वाले इस अस्पताल के मेडिसिन, प्रसूति रोग और हड्डी वार्ड में सभी बेड हमेशा भरे रहते हैं.
Denne historien er fra October 19, 2022-utgaven av India Today Hindi.
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