अहमदाबाद की 39 वर्षीया गृहिणी अदिति थॉमस उस खौफनाक अनुभव को याद कर आज भी कांप उठती हैं. वे पति के साथ अपनी इनोवा में एनएच 48 पर दिल्ली से जयपुर जा रही थीं. मुख्य हाइवे के जाम होने पर उन्होंने दूसरा रास्ता लिया और ठीक उस वक्त जब वे फिर हाइवे पर आने वाले थे, सामने से तेज रफ्तार से उलटे आ रही एक कार ने उनकी गाड़ी में ड्राइवर की तरफ टक्कर मार दी. साइड बैग तो खुल और फूल गए, पर गाड़ी चला रहे उनके पति के शरीर पर चोटों और मोच के निशान अब भी हैं. अदिति याद करती हैं, "यह मेरी जिंदगी का सबसे डरावना अनुभव था. मेरा पैर टूट गया. खून बह रहा था. मुझे पता तक नहीं था कि मदद के लिए किस नंबर पर डायल करूं." वे सड़क किनारे बने अस्पतालों का जोखिम उठाने को तैयार नहीं थीं. आसपास कोई स्पेशलाइज्ड ट्रॉमा सेंटर भी नहीं था. वे जयपुर से महज 60 किमी दूर थे. अदिति ने जोर दिया कि उन्हें जयपुर के अस्पताल ले जाया जाए. राहगीरों की मदद से एंबुलेंस का नंबर खोजने में उन्हें 15 मिनट लगे. एंबुलेंस और पुलिस के आने में और 45 मिनट लग गए. पुलिस ने पहले कागजी कार्रवाई करने पर जोर दिया, जिसमें और 20 मिनट लगे. आखिरकार घंटे भर के तकलीफदेह सफर के बाद दंपती जयपुर सवाई माधो सिंह अस्पताल पहुंच पाए.
अदिति ईश्वर का एहसान मानती हैं कि दोनों जिंदा बच गए. भारतीय राजमार्गों पर हर साल 1,00,000 के करीब लोग हादसों में मारे जाते हैं. यानी रोज 274 या हर घंटे 11 मौतें. राष्ट्रीय राजमार्ग हालांकि देश भर में बिछी 63 लाख किलोमीटर लंबी सड़कों का बमुश्किल 2.1 फीसद हैं, पर वे सड़क हादसों में होने वाली 36 फीसद मौतों और औसतन 4,35,000 में से एक-तिहाई गंभीर घायलों के लिए जिम्मेदार हैं. इनमें प्रादेशिक राजमार्गों को भी जोड़ लें तो सड़कों की कुल लंबाई का आंकड़ा 5 फीसद और सड़क हादसों का आंकड़ा 60 फीसद से भी ऊपर पहुंच जाता है. केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने इंडिया टुडे को बताया, "समस्या बहुत ही गंभीर है. यहां तक कि उग्रवादियों से लड़ते वक्त या युद्ध में होने वाली मौतों की संख्या इसके मुकाबले काफी कम है. सड़क हादसों में होने वाली मौत भीषण बीमारियों के साथ देश में सबसे अधिक जान लेती हैं." (देखें, बातचीत)
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