अस्सी के दशक में मैं अमेरिका में पत्रकारिता जगत में सक्रिय था। प्रवासी भारतीयों द्वारा कई समाचारपत्र प्रकाशित होते थे, जिनमें मैं नियमित रूप से लिखता था। इसी क्रम में भारतीय राजनीति और हिंदी सिनेमा के लोकप्रिय व्यक्तियों के इंटरव्यू का अवसर मिलता था। एक दफा देव आनंद अमेरिका आए, तो मैंने उनका इंटरव्यू लिया था। देव साहब से यह मेरी पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात में ही देव साहब ने अपने जादुई एहसास से मंत्रमुग्ध कर दिया था।
उन दिनों मैं सितारवादक पंडित रविशंकर पर 'भैरवी' नाम से डॉक्युमेंट्री बनाने का प्रयास कर रहा था, मगर मुझे भारत आना पड़ा। भारत आकर मेरी मुलाकात जब देव साहब से हुई तो मालूम हुआ वे भी पंडित रविशंकर पर 'सॉन्ग ऑफ लाइफ' नाम से डॉक्युमेंट्री बनाने का प्रयास कर रहे हैं। यानी हम दोनों का लक्ष्य एक ही था, लेकिन कुछ कारणों से हमें डॉक्युमेंट्री बनाने के लिए कॉपीराइट नहीं मिला। बाद में एक फिल्म फेस्टिवल में फिर मेरी मुलाकात उनसे हुई। मैंने उन पर एक कविता लिखी थी। जब मैंने उन्हें कविता सुनाई तो वे बेहद खुश हुए। इस तरह मेरी उनसे जान-पहचान बढ़ी। उन दिनों वे अपनी फिल्म सेंसर के निर्माण में व्यस्त थे। उन्होंने मुझे भी फिल्म की डबिंग और अन्य कार्यों में शामिल होने के लिए कहा। मैं उनसे प्रभावित था और मेरी फिल्म निर्माण में रुचि भी थी, सो उनसे नियमित मिलने लगा। सेंसर में बड़ी स्टारकास्ट थी, मगर फिल्म चली नहीं। उन्होंने सेंसर को पीछे छोड़ते हुए अगली फिल्म शुरू कर दी।
वे 80 वर्ष की आयु में भी उसी ऊर्जा से फिल्म बना रहे थे जिस ऊर्जा से उन्होंने मुंबई में पहला कदम रखा था। वे हर फिल्म में नए विषय को लेकर आते थे। उन्हें फॉर्मूला फिल्मों से लगाव नहीं था। फिल्मों का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन अच्छा न रहने के बाद भी वे आखिरी समय तक निरंतर नए विषयों पर फिल्म बनाते रहे। इतना ही नहीं, वे केवल तीन से चार करोड़ रुपये के बजट की ही फिल्म बनाते थे। हमेशा उनकी कोशिश नए कलाकारों को मौका देने की होती थी।
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