चुनावी बॉन्ड के सबसे बड़े लाभार्थी को क्या सबसे ज्यादा नुकसान होने जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस योजना को असंवैधानिक ठहराया, आगे ऐसे बॉन्ड को जारी करने पर रोक लगाया और इसके जरिए राजनैतिक फंडिंग पाने वालों और चंदा देने वालों का सारा ब्यौरा उजागर करने के आदेश दिए, तो सबसे अहम सवाल यही उठ खड़ा हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2017 में चुनावी बॉन्ड योजना ले कर आई, जो कॉरपोरेट इकाइयों और व्यक्तियों को भारतीय स्टेट बैंक से चुनावी बॉन्ड खरीद कर उसे अपनी पसंद के राजनैतिक दल के खाते में जमा करने की छूट देती थी। इसे केवल स्टेट बैंक ही जारी कर सकता था।
इसमें देने और लेने वाले की पहचान गुप्त रखने की सुविधा थी। यहां तक कि लाभार्थी को भी सीधे देने वाले का नाम नहीं पता होता था क्योंकि बॉन्ड पर धारक का नाम नहीं होता था। हालांकि पारदर्शिता के पैरोकारों का लंबे समय से कहना रहा है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि देने वाला खुद चाहेगा कि उसकी पहचान पाने वाले को पता रहे और यह काम आसान है।
आगामी कुछ महीनों में होने वाले आम चुनाव के मद्देनजर यह अदालती आदेश न केवल राजनीतिक चंदे को प्रभावित करेगा, बल्कि राजनैतिक दलों के लिए शर्मिंदगी का बायस भी बन सकता है क्योंकि लेने और देने वाले की पहचान सार्वजनिक होने के बाद राजनैतिक दलों के विभिन्न कारोबारी समूहों के साथ रिश्ते उजागर हो जाएंगे। आदेश के अनुसार केंद्रीय चुनाव आयोग को यह विवरण 13 मार्च तक सार्वजनिक करना है।
इस योजना को लाए जाने के बाद उसकी सबसे बड़ी लाभार्थी भारतीय जनता पार्टी रही है। इस महीने की शुरुआत में केंद्र सरकार ने अदालत को बताया था कि 30 किस्तों में स्टेट बैंक से खरीदे गए चुनावी बॉन्ड की कीमत करीब 16,518 करोड़ रुपये है।
जुलाई 2023 तक यह राशि 13,791 करोड़ रुपये थी। यानी अगस्त 2023 से जनवरी 2024 के बीच 2,727 करोड़ रुपये के बॉन्ड बेचे गए। मात्र छह महीने की यह राशि पिछले 65 महीनों यानी करीब पांच साल में बॉन्ड की बिक्री से आई राशि का पांचवां हिस्सा है।
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