चुनावी दलित राजनीति का दुष्काल
Outlook Hindi|December 09, 2024
महाराष्ट्र के चुनावी अखाड़े में दलितों की सच्ची नुमाइंदगी करने वाला नहीं बचा कोई, विभाजनों ने तोड़ दी आंबेडकरी आंदोलन की ताकत
श्वेता देसाई
चुनावी दलित राजनीति का दुष्काल

मराठवाड़ा के दलितों के उत्पीड़न की यादें बीड के बालासाहब जावले को अब भी परेशान करती हैं। पैंतीस वर्षीय बालासाहब पीएचडी हैं और एक स्थानीय कॉलेज में पढ़ाते हैं। अपने बचपन में देखी जातिगत हिंसा उन्हें अच्छे से याद है, खासकर 2003 में बौद्ध दलित दादाराव डोंगरे की हत्या, जो सोना खोटा गांव में हुई थी। पुलिस ने उस मामले में ऊंची जाति के आरोपियों के खिलाफ एससी/एसटी धारा में केस दर्ज करने से इनकार कर दिया था । स्थानीय अफसर भी मुंह चुरा रहे थे। ऐसे में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) ने डोंगरे के लिए न्याय की लड़ाई की अगुआई की थी। दलित उस समय पार्टी के नेता रामदास अठावले की ओर बड़ी उम्मीद से देखा करते थे। जावले याद करते हैं, "आंबेडकरी आंदोलन में अठावले का ऊंचा कद था। हम उन्हें जमीनी नेता की तरह देखते थे जो दलितों के दर्द और आकांक्षाओं से जुड़ा है।" बीस साल में वक्त बदल गया। जावले की अठावले के बारे में राय भी बदल चुकी है। वे कहते हैं, "उन्होंने पूरी आरपीआई (ए) को एक मंत्रीपद के लिए गिरवी रख दिया। उनकी अब राजनीति में कोई पहचान नहीं रह गई है। यह जानते हुए भी वे कुर्सी से चिपके हुए हैं।"

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में अठावले एक दुर्लभ प्राणी हैं। सामाजिक न्याय के वे तीन बार राज्यमंत्री रह चुके हैं। एनडीए में उन्हें स्टार दलित नेता माना जाता है। बावजूद इसके, हाल के कुछ वर्षों में यह सब कुछ चुनाव लड़े बगैर हुआ है। वे 2012 में एनडीए का हिस्सा बने थे। 2014 और 2019 में उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली लेकिन अठावले को राज्यसभा की कुर्सी लगातार मिलती रही । महाराष्ट्र में उनकी पार्टी ने लगातार दूसरी बार चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया है। दूसरी ओर, दलित नेता जोगेंद्र कावड़े की पीपुल्स रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया भी परिदृश्य से गायब है। वे भी भाजपानीत महायुति को अपना समर्थन दे चुके हैं। प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी 208 सीटों पर लड़ रही है, लेकिन उसके ऊपर भाजपा को मदद पहुंचाने का आरोप लगता रहा है। खराब सेहत के कारण खुद आंबेडकर प्रचार नहीं कर रहे हैं। यानी, 13 फीसदी दलितों के लिए महाराष्ट्र की सियासत का चुनावी अखाड़ा खाली पड़ा है। आंबेडकरी आंदोलन का नीला रंग धुंधला चुका है या फिर भाजपाई भगवा के साथ घुलमिल चुका है।

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