"करीब 25 साल पहले की बात है. मेरे गांव में हिंदू और मुसलिम के साथ ही साथ पिछड़ी और दलित जाति के लोग रहते थे. मेरा गांव राजधानी लखनऊ से 40 किलोमीटर दूर है. नंदौली गांव की होली मशहूर है. जब होली, दीवाली होती थीं तो मुसलिम बिरादरी के लोग इन त्योहारों में खुल कर हिस्सा लेते थे. गांव में कोई बड़ा मंदिर नहीं था. एक छोटा मंदिर उपेक्षित सा था. वहां गांव के एकदो लोग छोड़ कोई पूजापाठ करने नहीं जाता था. कोई मसजिद नहीं थी.
"गांव के देवीदेवताओं के पूजा जुलूस में सभी हिस्सा लेते थे. होली में घरघर जा कर होली मिलने का रिवाज था. उस दिन घर के लोग भी तैयार रहते थे कि उन के यहां होली मिलने लोग आते थे. इसलिए तैयारी में कुछ नाश्ता, मिठाई, पान जैसी चीजें स्वागत में रखते थे. किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं था. इसी तरह से ईद में भी होती थी. गांव के ज्यादातर लोग शाकाहारी थे तो बकरीद बहुत हर्ष के साथ नहीं मनाई जाती थी.
“मुसलिम बिरादरी के लोग भी इस बात का ध्यान रखते थे कि कोई गड़बड़ न हो. एक त्योहार था जिस में गन्ने की पूजा की जाती थी. गन्ने की खेती दोचार परिवारों के किसान ही करते थे. ऐसे में जिस घर में गन्ना नहीं होता था उस के घर गन्ने मुफ्त में भेजे जाते थे. इसी तरह त्योहार में किसी के घर खाने की दिक्कत न हो, इस का खयाल रखा जाता था. जातीय या धार्मिक आधार पर कोई भेदभाव नहीं होता था.
“शहर और दूसरी जगहों की हवा से यह गांव भी अछूता नहीं रहा. 15 से 20 साल के बदलते माहौल ने यहां की हवा को भी बदल दिया है. तनाव नहीं होता पर अब पहले जैसी भावना नहीं रही. गांव में मसजिद और मंदिर दोनों हो गए हैं. राजनीति भी गांव के माहौल का हिस्सा बन गई है. इस के बाद भी हालात बहुत नहीं बिगड़े हैं. लोग एकदूसरे की मदद करते है," शिक्षक और समाजसेवा में सक्रिय आई पी सिंह आगे कहते हैं, “त्योहार की खुशियां तभी हैं जब हर जाति और धर्म के लोग मिल कर मनाएं. त्योहार एकदूसरे को जोड़ने का काम करते हैं. आने वाले त्योहारों में हम सब को यही प्रयास करना चाहिए."
कानून व्यवस्था के लिए खतरा बनते त्योहार
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