![सूरज पाल और कुमार विश्वास क्यों बदल रहे हैं धर्म के माने सूरज पाल और कुमार विश्वास क्यों बदल रहे हैं धर्म के माने](https://cdn.magzter.com/1338812051/1725275978/articles/IFVOEPojC1725346660486/1725346888753.jpg)
कवि कुमार विश्वास और सूरज पाल सिंह उर्फ भोले बाबा में जितने फर्क हैं उतनी ही समानताएं भी हैं, मसलन, दोनों ही कथाओं और प्रवचनों के जरिए अकूत दौलत के मालिक बने. सूरज पाल ने खुद के भगवान होने का दावा कर डाला तो कुमार विश्वास ने यह जोखिम नहीं उठाया क्योंकि उन का ग्राहक वर्ग सवर्ण, शिक्षित और बुद्धिजीवी है जिस के लिए रामकथा आस्था के साथसाथ टाइमपास मूंगफली जैसा विषय भी है. इस के, खासतौर से पारिवारिक प्रसंगों के जरिए वह अपनी आध्यात्मिक भूख मिटाता है. जबकि सूरज पाल की ग्राहकी हाथरस हादसे के बाद सभी ने देखा कि गरीब, दलित, ओबीसी तबके की है. इन लोगों को मोक्ष नहीं बल्कि पैसा चाहिए, अपनी बीमारियों व परेशानियों से नजात चाहिए. ये दोनों ही बाबा अपनेअपने स्तर पर अपने ग्राहकों की जरूरत के मुताबिक प्रोडक्ट और सर्विस दोनों देते हैं.
महिलाएं हैं ग्राहक
एक बड़ा फर्क दोनों में यह भी है कि सूरज पाल का ग्राहक सड़क के किनारे लगे तंबुओं में बैठ सब्जीपूरी के भंडारे को भगवान का प्रसाद मान संतुष्ट हो जाता है. मौसम की मार बरदाश्त कर लेता है. लेकिन कुमार विश्वास का ग्राहक बड़ी महंगी गाड़ियों में आता है और वातानुकूलित हौल की कुरसियों में धंस कर धार्मिक किस्से कहानियां सुन झूमने लगता है.
कुमार नए दौर के नए किस्म के बाबा हैं जिन का पहनावा आंशिक रूप से पंडेपुरोहितों जैसा होता है. वे नारद मुनि की स्टाइल में नहीं बल्कि विश्वामित्र की स्टाइल में रामकथा सुनाते हैं जिस में अधिकतर प्रवचन की केंद्रीय पात्र उर्मिला, कौशल्या, मंदोदरी या सीता होती है जिस से महिला ग्राहकों को लुभाया जा सके क्योंकि श्रोताओं में बड़ी हिस्सेदारी उन्हीं की होती है.
कुमार विश्वास पौराणिक महिला पात्रों की व्यथापीड़ा या तथाकथित त्याग वगैरह को आज की जिंदगी व समाज से रिलेट करते हैं. लेकिन वे इसे कोसते नहीं कि यह सब पितृसत्तात्मक समाज और धर्म की साजिश है कि औरत मर्दों की दादागीरी बरदाश्त करती रहे, यही उस के लिए विधाता ने तय कर रखा है. यही उस की नियति और ड्यूटी है. औरत महान इसलिए है कि वह तमाम ज्यादतियां खामोशी से बरदाश्त कर लेती है.
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हम बचपन में बोलना तो सीख लेते हैं मगर क्या बोलना है और कितना बोलना है, यह सीखने के लिए पूरी उम्र भी कम पड़ जाती है. मौन रहना आज के दौर में ध्यान केंद्रित करने की तरह ही है.
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सरकार द्वारा कई स्कीमों को चलाया जा रहा है. बिना एडवांस मोबाइल फोन और इंटरनैट सेवा की इन स्कीमों का फायदा उठाना असंभव है. ऐसा अनावश्यक जोर क्या सही है?
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सास बदली लेकिन नजरिया नहीं
सास और और बहू को एकदूसरे की भूमिका को स्वीकार करना चाहिए. सास पुरानी परंपराओं का पालन करते हुए बहू को सिखा सकती है और बहू नई सोच व नए दृष्टिकोण से घर को बेहतर बना सकती है.
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अमेरिका में भी पनप रहा ब्राह्मण व बनिया गठजोड़
डोनाल्ड ट्रंप के शपथ ग्रहण समारोह के साथ ही अमेरिका में एक नए दौर की शुरुआत हो चुकी है जिसे ले कर हर कोई आशंकित है कि अब लोकतंत्र को हाशिए पर रख धार्मिक एजेंडे पर अमल होगा.
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किस संतान को मिले संपत्ति पर ज्यादा हक
यह वह दौर हैं जब पेरैंट्स की सेवा न करने वाली संतानों की अदालतें तक खिंचाई कर रही हैं लेकिन मांबाप की दिल से सेवा करने वाली संतान के लिए जायदाद में ज्यादा हिस्सा देने पर वे भी अचकचा जाती हैं क्योंकि कानून में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है. क्या यह ज्यादती नहीं?
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युवाओं के सपनों के घर पर डाका
नौकरीपेशा होम लोन ले कर अपने सपनों का आशियाना खरीद लेते हैं. लेकिन यहां समस्या तब आती है जब किसी यूइत में वे लोन नहीं चुका पाते. ऐसे में कई बार उन्हें अपने घर से हाथ धोना पड़ता है.
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मेलजोल के अवसर बुफे पार्टी
बूफे पार्टी में मेहमान भोजन और अच्छे समय का आनंद लेने के साथसाथ सोशल गैदरिंग के चलन को भी जीवित रखते हैं. यह अवसर न केवल खानपान के लिए होता है बल्कि यह लोगों के बीच बातचीत, हंसीमजाक और आपसी विचारों के आदानप्रदान का एक साधन भी है.
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एक तरह के हादसे पर कानून दो तरह से कैसे काम कर सकता है? क्या यह न्याय और संविधान दोनों का अपमान नहीं ?
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ऊंचे ओहदे वालों में अकड़ क्यों
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बंटोगे तो कटोगे वाला नारा प्रधान राष्ट्र
देश नारा प्रधान है. काम भले कुछ न हो रहा हो पर पार्टियां और सरकारों द्वारा उछाले नारों की खुमारी जनता पर खूब छाई रहती है.