दूसरे विश्व युद्ध के बाद हम दो चरणों से गुजरे। पहला, शीत युद्ध का दौर जब परमाणु प्रतिरोध पर जोर था और सीमित युद्ध हुए। सोवियत संघ के पतन के बाद अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में अराजक स्थितियों में युद्ध हुए। इन तमाम वर्षों के दौरान विश्व अर्थव्यवस्था की बुनियादी मशीनरी सही ढंग से काम करती रही। जी-20 के अधिकतर देशों में अपेक्षाकृत स्थिर माहौल रहा। सन 1982 में शुरू हुए दूसरे वैश्वीकरण के दौरान व्यापार, पूंजी और श्रम संबंधी गतिविधियों पर सरकार का नियंत्रण तेजी से कम हुआ।
वैश्विक हालात और भारतीय अर्थव्यवस्था के रिश्ते को अक्सर कम करके आंका जाता है। हम भारत की वृद्धि के दौर, मसलन 1979 से 1989 या 1991 से 2011 की बात करते हैं और विशुद्ध भारतीय संदर्भ में ही करते हैं, जबकि इस दौरान भी वैश्विक प्रभाव और वैश्विक शांति का असर गहरा रहा है। भारत को वैश्वीकरण का खूब लाभ मिला। 2023-24 में भारत ने 441 अरब डॉलर मूल्य की वस्तुओं और 341 अरब डॉलर मूल्य की सेवाओं का निर्यात किया। 1991 की मामूली परिस्थितियों की तुलना में ये बड़े लाभ थे। भारत को वैश्वीकरण के लाभ बरकरार रखने के लिए विवेकपूर्ण बाहरी वातावरण की आवश्यकता है। इसी में उसे 2023-24 का निर्यात बरकरार भी रखना है और उसे दोगुना करने की कोशिश भी करनी है।
1973 में भारतीय अर्थव्यवस्था को तेल के झटके का सामना करना पड़ा था। उसके बाद योम किप्पुर (अरब-इजरायल) जंग छिड़ गई। 1985 से 2008 के बीच वह दौर था, जब विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने मजबूत वृहद आर्थिक नीतियाँ अपनाकर अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया। इसमें लचीली विनिमय दर और मुद्रास्फीति का लक्ष्य साधना शामिल था। कुवैत पर इराकी हमला छोड़ दिया जाए तो यह अवधि भारत के लिए अच्छी साबित हुई। उस हमले ने भारत में भुगतान संतुलन का संकट जरूर उत्पन्न कर दिया।
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