लेखिका आशापूर्वा देवी की एक पुस्तक 'दुसाहसिक' में 'राहूं' नामक कहानी में विवाहिता कल्पना अपने प्रेमी विकास को अपने दूर के रिश्ते में भाई के रूप में अपने ससुराल वालों से मिलवाती है. अकसर कुछ दिनों के लिए उस का प्रेमी उस की ससुराल में उस से मिलने के बहाने रहने के लिए आता भी रहता. घर की कुछेक औरतों को उस के इस प्रगाढ़ संबंध पर शक होने लगता है.
इस भय से कल्पना अपने प्रेमी को वहां आने से मना करते हुए कहती है, "जब तुम बहुत लंबे अरसे तक नहीं आते हो तो सभी धीरेधीरे सबकुछ भूल जाते हैं, मैं भी भूल जाती हूं... फिर तुम धूमकेतु की तरह आ पहुंचते तो सबकुछ तारतार हो जाता है. इस का क्या अंत न होगा?"
इतना कहने के बाद भी कल्पना अपने प्रेम प्रसंग के मोह से खुद को मुक्त नहीं करना चाहती और अंत में प्रेमी विकास के जाने पर पूछ ही बैठती है कि अगली बार कितने दिनों के लिए आओगे ? पति से बेवफाई कर रही कल्पना अपने सुख के आगे किसी और अंजाम या डर से बेखबर ही रहना चाहती है. जब जो होगा देखा जाएगा. शायद इसीलिए इतनी निडरता से वह सब के बीच अपने प्रेमी विकास से प्रेमालाप करने से भी नहीं झिझकती.
कुछ ऐसा ही दौर कभीकभार वास्तविक जिंदगी में पतिपत्नी के बीच आता है. कब किस मोड़ पर किस से प्रेमाकर्षण हो जाए या दोस्ती कब कौन सा रूप ले बैठे पता ही नहीं चलता. बेवफाई का सिलसिला थमने के बजाय रफ्तार पकड़ने लगता है. दुनिया की फिक्र को ताक पर रख हाथ में हाथ पकड़ दूर तक का सफर कुछ ही डग में भरने की कोशिश की जाती है. बस नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं हो पाती, तो सिर्फ अपने लाइफ पार्टनर से तब कहीं न कहीं मन में गीत के ये बोल जरूर याद आते हैं.
“हम बेवफा हरगिज न थे, पर हम वफा कर न सके..."
जब खुलता है राज
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