रचना कंप्यूटर पर काम कर रही थी. कीपंचिंग करते हुए यदि रचना को कोई देखता तो कह नहीं सकता था कि उस के मन में विचारों का तूफान चल रहा है. हां, आंखों से झलकती गहरी उदासी जरूर देखने वाले को कुछ आभास दे सकती थी. उस के साथ काम करने वाली लक्ष्मी, जिसे वह प्यार से लाखी कहती थी, कुछकुछ समझने लगी थी.
2 घंटे तक बिना हिलेडुले कंप्यूटर पर काम करने के बाद रचना कुरसी पर अनमनी सी बैठी थी. सिर को पीछे कुरसी पर टिका कर आंखें मूंदे वह अपने मन को स्थिर करने की चेष्टा कर रही थी. तभी लंच टाइम पर लाखी ने आ कर उस के विचारक्रम को तोड़ डाला, “ओए रचना, मेथी का साग लाई हूं, दाल और दूसरी सब्जी भी है, " नैपकिन से हाथों को पोंछती लाखी रचना के पलपल मुरझाते मुख को देख कर घबरा उठी जो उसे लंच के लिए बुलाने आई थी.
रचना ने सूखे होंठों पर धीरे से जीभ फेरी और कुछ क्षण लाखी की ओर देखती रही. फिर जैसे जोर लगा कर बोली, "मेरी जान लाखी, जो भी तुम्हारा मन हो वही खा लो. मैं अभी मूड में नहीं हूं."
लाखी ने प्यार भरे अपनत्व से पूछा, "क्या बात है, कुछ खुलासा करो, शायद मैं कुछ हैल्प कर सकूं."
रचना ने जबरन मुसकराते हुए कहा, “अरे लाखी, तुम हमेशा कुछ और ही सोचती हो. कुछ भी तो नहीं है. बस, ऐसे ही कुछ चक्कर सा आ गया."
लाखी कुछ और समझ कर मन ही मन खुशी से भर उठी. मीठे उलाहने के से स्वर में बोली, "अरे तो इस में शर्म की क्या बात है, जाओ छुट्टी ले कर जाओ और आराम करो, मैं अभी अपोइंटमेंट फिक्स करती हूं किसी गाइनी से."
लाखी जाने को मुड़ी, तभी रचना भीगे से स्वर में बोली, “लाखी, जो तुम समझ बैठी हो वह बात नहीं है," कह कर वह अपनी दबी रुलाई को और न रोक सकी.
लाखी ने आगे बढ़ कर उस के सिर को सहलाया और रुंधे कंठ से बोली, “रिच, जी न दुखाओ, जा कर थोड़ी देर बैठी रहो, मैं गरम चाय लाती हूं. क्यों इन डाक्यूमैंट्स पीछे पड़ी हो. अपने रमेश से कह देतीं, नाहक जी हलकान किया."
रचना धीरे से उठी और बाथरूम की ओर बढ़ी ही थी कि उसके फोन की घंटी बज उठी. वह फिर ठिठक गई और बरामदे के एक कोने में रखी मेज की ओर बढ़ी. लाखी ने तब तक स्वयं फोन उठा लिया.
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