अपलम चपलम
आजाद (1955)
शायद पहली बार इस फिल्म में दर्शकों ने एक शास्त्रीय नृत्य–भरतनाट्यम–अपने खालिस रूप में देखा. कोरियोग्राफी हीरालाल की थी. यह सबसे ज्यादा बहनों के दो जोड़ों को पेश करने के लिए जाना जाता है. 1950 के दशक में राज करने वाली सायी-सुब्बालक्ष्मी परदे पर थीं, तो मंगेशकर बहनों उषा - लता ने बैले नर्तकियों सरीखी अपनी कोमल आवाजों से उन्हें नेपथ्य से स्वर दिया. गति और हरकतें उल्लासपूर्ण, गरिमामयी और हरदम अविश्वसनीय-सी हैं और अभिव्यक्तियों के साथ पूरा तालमेल बनाकर रखती हैं. 67 साल बाद भी आप तय नहीं कर पाते कि कौन-सी बहन बेहतर नृत्य कर रही है. यह बहुत खूबसूरती से दिखाता है कि फिल्मी धुन पर शास्त्रीय नृत्य करना किस तरह संभव है. खालिस निपुणता के दम पर यह ऐसा नृत्य बन पड़ा है कि आज भी इसे दोहरा पाना मुश्किल है.
प्यार किया तो डरना क्या
मुगल-ए-आज़म (1960)
के. आसिफ की इस महान कृति को हर जगह क्लासिक के तौर पर देखा जाता है, तो इसका एक प्रमुख कारण इसके नाच-गाने हैं. अभिनय की दिलकश प्रस्तुति के कारण 'मोहे पनघट पे' किसी भी बेस्ट-ऑफ लिस्ट में शामिल होने का हकदार है, पर कथक गुरु लच्छू महाराज यहां इसे एक पायदान और ऊपर ले जाते हैं. देखने में बेहद आनंददायक यह गाना मुगलों के महल की समूची भव्यता को कैद करता है- छत पर लगे आइनों में गोल-गोल घूमती अनारकली के अक्स का दृश्य बेहद शानदार बन पड़ा है, जिसमें मोहब्बत एकबारगी ताकत पर फतह हासिल कर लेती है. इस मकसद के लिए बागी मधुबाला पूरी निडरता से सल्तनत को सच्चाई बताते (और नाचते) हुए दिपदिपा रही हैं.
आ जाने जां/ओ हसीना जुल्फों वाली
इंतकाम (1969)/तीसरी मंजिल (1966)
This story is from the January 04, 2023 edition of India Today Hindi.
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