हर पीढ़ी का यही मानना है कि वह पहले की तुलना में कहीं ज्यादा अनिश्चित और खतरनाक दुनिया में रह रही है, संकट अभूतपूर्व हैं और यहां तक कि इंसानों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है. मीडिया की टिप्पणियों के आधार पर आकलन करें तो हम कोई अपवाद नहीं हैं. फिर भी, मानव जाति ने न सिर्फ खुद को बचा रखा है बल्कि लगातार अपने हालात में सुधार कर रही है. इतिहास पर नजर डालें तो अब और ज्यादा लोग अधिक लंबा, स्वस्थ और समृद्ध जीवन जी रहे हैं.
हमारी वस्तुपरक स्थिति और जिस तरह हम उसे समझते हैं, के बीच इस मिथ्याभास या विरोधाभास के बारे में यही कहा जा सकता है कि यह वैश्विक व्यवस्था
का एक विचार बन चुका है. द्विध्रुवीय शीत युद्ध और फिर एकध्रुवीय स्थिति ने हमें यह मानने का आदी बना दिया कि कोई न कोई वैश्विक क्रम होना सामान्य और लाभदायक है क्योंकि पहली व्यवस्था में दो और उसके बाद एक महाशक्ति ने दुनिया पर प्रभुत्व स्थापित किया. कोई आधिपत्यवादी क्यों चाहेगा कि हम इससे इतर सोचें.
मगर इतिहास और अनुभव हमें क्या बताते हैं ? दरअसल, विश्व व्यवस्था इतिहास में अपवाद रही है. इतिहास के अधिकांश वक्त में कोई विश्व व्यवस्था नहीं रही. विश्व व्यवस्था तभी अस्तित्व में आती है जब शक्तियों में भारी असंतुलन हो, जैसे 13वीं शताब्दी में मंगोलों के ताकतवर होने पर, 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभ में यूरोप का प्रभुत्व स्थापित होने तथा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और कुछ समय के लिए तत्कालीन सोवियत संघ के पास ज्या दा ताकत आने के साथ हुआ था. और जरूरी नहीं कि व्यवस्था के अधीन विश्व सबसे शांतिपूर्ण हो. शीत युद्ध के दौरान दुनिया की 80 फीसद से ज्यादा सैन्य और आर्थिक शक्ति को दो महाशक्तियां अपने गठबंधन के जरिए नियंत्रित करती थीं. मौजूदा वक्त में दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और सैन्य शक्ति का 50 फीसद से थोड़ा कम हिस्सा दो सबसे बड़ी शक्तियों अमेरिका और चीन के नियंत्रण में है. इसलिए विश्व व्यवस्था की तुलना में इसके अनुपस्थित होने पर दुनिया में शक्ति संतुलन अधिक समान होता है.
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