जिंदगी मेरी मरजी भी मेरी
Grihshobha - Hindi|November First 2024
हर रिश्ते में औरत की एक खास छवि बना दी गई है और यह छवि उस पर इस कदर हावी है कि वह उसी फ्रेम के अंदर कैद रहने की कोशिश करती रहती है. सवाल है, क्या औरत इस फ्रेम से बाहर निकल कर खुद की पहचान नहीं बना सकती...
गरिमा पंकज
जिंदगी मेरी मरजी भी मेरी

टाटा एआईए लाइफ इंश्योरेंस (टाटा एआईए) के एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कामकाजी युवतियों की संख्या बढ़ी है लेकिन जब बात कोई फैसला लेने की आती है तो वे कतराती हैं. सर्वेक्षण से पता चलता है कि 59% महिलाएं अपने वित्तीय मामलों पर स्वतंत्र रूप से निर्णय नहीं लेती हैं. वैसे अगर उन्हें विकल्प दिया जाए तो 44% महिलाएं अपने फाइनैंशियल डिसीजंस खुद लेने को तैयार हैं. सर्वेक्षण के निष्कर्षों से यह भी पता चला कि 89% विवाहित महिलाएं और युवतियां फाइनैंशियल प्लानिंग के लिए अपने पति पर निर्भर हैं. शादी से पहले पिता युवतियों के फाइनैंशियल डिसीजंस के लिए जिम्मेदार होते हैं जिसे शादी के बाद चुपचाप पति को सौंप दिया जाता है.

अधिकांश महिलाओं के लिए आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें अपने वित्त से संबंधित निर्णय लेने की स्वतंत्रता है. महिलाओं में फैसले न लेने का यह रवैया केवल महज आर्थिक बातों में ही नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में कमोबेश यही स्थिति है. उदाहरण के लिए इस समय त्योहारों का दौर चल रहा है. घरों में कपड़ों और दूसरी जरूरी चीजों की खरीदारी होती है जिस का फैसला ज्यादातर पुरुष लेते हैं. महिलाएं भी सब पुरुषों पर छोड़ देती हैं जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि अकसर इन चीजों का इस्तेमाल उन्हें ही करना होता है.

अगर किचन इक्विपमैंट आ रहा है तो जाहिर है उस का इस्तेमाल स्त्री को करना है, बच्चों के कपड़े हैं तो वहां भी स्त्री को ही बच्चों को संभालना है. चीजें महिला के काम की हैं मगर क्या लाना है या क्या नहीं लाना है यह फैसला पति का क्यों हो? घर के परदे बदलने हैं तो स्त्रियां अपनी पसंद के रंग वाले परदे क्यों न लाएं?

समाज की परिपाटी

This story is from the November First 2024 edition of Grihshobha - Hindi.

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