रघु को नींद आ रही थी. वह कच्ची नींद में सो रहा था. उस ने मोमो चूहे को टेबल के नीचे घुसते देखा. वहां कुछ कौफी बींस की फलियां गिरी हुई थीं. वह उन्हें ले कर अपने बिल में घुस गया और खाने की कोशिश करने लगा, पर एक आवाज सुन कर वह चौंक गया.
“सुनो, मोमो, यदि तुम मुझे न खाओ तो मैं तुम्हें अपनी कहानी सुनाना चाहती हूं. वैसे भी तुम्हें मेरा स्वाद पसंद नहीं आएगा, क्योंकि मैं अभी कच्ची हूं,” कौफी बींस की फली से आवाज आई.
"ठीक है, तुम मुझे अपनी कहानी बताओ, मैं तुम्हारी बात सुनने के बाद तय करूंगा कि तुम्हें खाऊं या न खाऊं,” मोमो बोला.
“तो सुनो, सुनाती हूं, कौफी बींस ने सुनाना शुरू किया.
“मैं कौफी बींस हूं, अरबी में मेरा नाम 'कहवा' है, जिस से बाद में कौफी और कैफे शब्द बने. मेरा जन्मस्थान यमन और इथियोपिया की पहाड़ियां हैं. यमन के सूफीसंत मेरा इस्तेमाल भगवान को याद करते वक्त ध्यान लगाने के लिए करते थे."
“कहते हैं कि इथियोपिया के पठार में एक चरवाहे ने जंगली कौफी के पौधे से बने पेय पदार्थ की सब से पहले चुस्की ली थी. वर्ष 1414 तक मक्का कौफी से परिचित नहीं था. 15वीं शताब्दी की शुरुआत में यह यमन में मोचा बंदरगाह से मिस्र पहुंची. काहिरा में एक धार्मिक विश्वविद्यालय के आसपास इसस की खेती होती थी. 1554 तक इस का प्रसार सीरियाई शहर 'अलेप्पो' और 'तुर्क साम्राज्य' की तत्कालीन राजधानी इस्तांबुल तक हो गया.”
“यह यूरोप में दो रास्तों से पहुंची, एक तो तुर्क साम्राज्य के माध्यम से और दूसरा समुद्र के रास्ते मोचा बंदरगाह से. 17वीं शताब्दी की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी और डच ईस्ट इंडिया कंपनी मोचा बंदरगाह से कौफी की सब से बड़ी खरीदार थी. जहाज केप औफ गुड होप होते हुए स्वदेश पहुंचते या फिर इसे भारत को निर्यात किया जाता. 1683 में विएना तुर्कों के कब्जे से आजाद हुआ, तब औस्ट्रिया में कौफी का खपत बढ़ी."
Bu hikaye Champak - Hindi dergisinin November First 2022 sayısından alınmıştır.
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